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________________ RAWATSA । hAPANESH ARIVARAN A RTHAMARAVAHEERHIVAHARITALIMINIORani ABI KEASREHENSIO NIMAR - णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन तीनों काल के सर्व अरिहन्त, सर्वसिद्ध भगवन्त, सर्व आचार्य, उपाध्याय, और साधु भगवंतों की एकत्रित बनी हुई विराट् आत्म-शक्ति है। ___ जिनके हृदय में पंच परमेष्ठियों के प्रति, णमोक्कार के प्रति गहरा आदर हो जाता है, उनके पुण्य-पाप के प्रश्न सुलझ जाते हैं। साधक के हृदय में ऐसी प्रक्रिया का निर्माण होता है, जो पुण्य का सर्जन एवं पाप का विसर्जन करती है। णमोक्कार मंत्र जो कुछ भी देता है, वह कभी कम नहीं होता, उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहता है। पुण्य का छोटा सा कण, जो णमोक्कार ने दिया, वह अंततोगत्वा विराट् ज्योति बनकर ही रहता है और साधक को मुक्ति के द्वार तक पहुँचा देता है। मंत्र : ध्वनि तरंग एवं प्रकाश । मंत्र-जप प्रत्यक्षत: ध्वनि-तरंगात्मक है। यदि जप-ध्वनि के अभ्यास में क्रमबद्धता, लयबद्धता और तालबद्धता हो तो एक गति-चक्र बनता है। वह ध्वनिमय तरंग-युक्त होता है। यदि निरंतर जप-ध्वनि-मूलक शब्दोच्चारण हो तो देह के आकाश-तत्त्व में घर्षण उत्पन्न होता है, जिससे प्रकाश का उद्भव होता है। जब तक वह प्रकाश विद्यमान रहता है, जप करनेवाले को असीम आनंद की अनुभूति होती रहती है। मंत्र-जप में, शब्दों के उच्चारण में, श्वासोच्छ्वास का आवागमन; एक लयबद्धता, एक तालबद्धता लिये हुए है। प्राणवायु की गति में भी एक विशिष्टता होती है, रक्त आंदोलित होता है, उससे शरीर में एक ऊष्मा उत्पन्न होती है। फलत: दिव्य-चेतना के केंद्र उत्तेजित और जागरित होते हैं, घर्षण उत्पन्न होता है, जिससे प्रकाश तथा उष्णता का उद्भव होता है। वहाँ धीरे-धीरे ध्वनि-तरंगें शब्द से अशब्द में चली जाती हैं। यह अजपा-जाप की अवस्था है। जब जप-ध्वनि बंद होती है, तब भीतर से स्वयं जप की एक आवाज अनवरत आती रहती है, सुनाई देने लगती है और मन के भीतर एक प्रकार का विलक्षण आनंद अनुभूत होने लगता है। देह का हिलना-डुलना बंद हो जाता है। उस जप को अजपाजाप कहा जाता है। अर्थात् जप करने का कोई प्रयत्न नहीं किया जाता, स्वयं ही जप होने लगता है। जप की एक धारा प्रवाहित होने लगती है। वहाँ मंत्र की अपनी विशेष सार्थकता सिद्ध होती है। MAHARAS HTRA SCIENCELLAHABAR ध्वनि की चामत्कारिकता मातका-ध्वनियों, स्वरों और व्यंजनों के सहयोग से ही समस्त बीजाक्षर उत्पन्न हुए हैं। इन १. जपयोग (कलापूर्णसूरिजी), पृष्ठ : ५, ६. २. आलोक-स्तंभ, पृष्ठ : ७. 49 MURE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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