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________________ सिद्धत्व-पर्यवसित जैन धर्म, दर्शन और साहित्य आर्वाचीन हैं। जैन-आचार्य-पट्टावली में दूष्यगणी का नाम प्राप्त होता है। उनके शिष्य का नाम देववाचक था। उन्होंने नंदी-सूत्र के रचना की। कुछ विद्वान् वलभी में संपादित तृतीय आगम-वाचना के निर्देशक आचार्य देवर्धिगणी क्षमाश्रमण तथा देववाचक को एक ही मानते हैं परंतु उन दोनों का अलग-अलग परिचय प्राप्त है, जिससे दोनों का एक होना साबित नहीं होता। इस सत्र पर आचार्य हरिभद्र और मलयगिरि ने टीकाएँ रची। इसमें ज्ञान के भेद-प्रभेदों का विस्तार से विवेचन हुआ है। इसमें अन्यान्य शास्त्रों और दर्शनों की भी चर्चा आई है। इसमें अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में श्रुत के दो भेद बतलाएं हैं। जो आगम गणधरों द्वारा संग्रथित हुए, वे अंगप्रविष्ट कहलाते हैं तथा जो स्थविरों द्वारा रचे गएं, वे अंगबाह्य कहलाते हैं। ४. अनुयोगद्वार-सूत्र प्राकृत तथा आगम-साहित्य के विद्वानों द्वारा यह माना जाता है कि अनुयोगद्वार-सूत्र की भाषा विषम-विवेचन की दृष्टि से अर्वाचीन है। आर्यरक्षित नामक आचार्य ने इस सूत्र की रचना की। जिनदासगणी महत्तर ने इस पर चूर्णि की रचना की। आचार्य हरिभद्र तथा मलधारी हेमचंद्र ने टीकाओं की रचना की। इस आगम में प्रश्नोत्तर-शैली में पल्योपम, सागरोपम आदि प्रमाणों का, नयों, निक्षेपों और नवकाव्य-रसों का उल्लेख है। संगीत-शास्त्र की भी चर्चा है। अन्य शास्त्रों और दर्शनों का भी उल्लेख है। RASSAINA छेद-सूत्र 'छेद' शब्द का अर्थ काटना, छिन्न करना या मिटाना है। यद्यपि साधु अपने आचार-पालन में जागरूक रहते हैं किन्तु फिर भी दोष लगने की आशंका रहती हैं क्योंकि वे भी मानव हैं, गृहस्थ समाज से साधु-जीवन में आए हैं, त्रुटियाँ- स्खलनाएँ हो सकती हैं। दोष लगते ही साधु उस पर ध्यान दे, यह आवश्यक है। जो वैसा नहीं करता- वह अपने स्थान से च्युत हो जाता है। यह उसके लिये पतन की बात है। इसलिये यदि दोष लग जाये तो प्रायश्चित्त द्वारा उसे मिटाये- नष्ट करे। छेद-सू प्रायश्चित आदि के विविध विधिक्रमों का प्रतिपादन किया गया है। १. व्यवहार-सूत्र जैन-परंपरा में ऐसी मान्यता है कि चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु ने इसकी रचना की। इस पर 29
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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