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________________ सिद्धत्व पर्यवसित जैन धर्म, दर्शन और साहित्य व्युत्पत्ति है। ऋषि द्रष्टा अथवा ज्ञानी से संबद्ध विषय को आर्प कहा जाता है। धर्म देशना में भगवान् महावीर द्वारा जो अर्धमागधी का प्रयोग हुआ है, वह भाषा की दृष्टि से आर्य है। आचार्य हेमचन्द्र ने आर्य के संबंध में लिखा है- 'आर्ष प्राकृतं बहुलं भवति'- अर्थात् आर्य प्राकृत में प्रायः बहुत या विकल्प होते हैं। प्राकृत 'के ख्यातनामा विद्वान् पं. बेचरदास जोशी ने अंग-आगमों की शैली और भाषा पर विशेष रूप से प्रकाश डालते हुए उनके वैविध्य पर तलस्पर्शी विश्लेषण किया है। आगमों की श्रवण-परम्परा भगवान् महावीर ने जो धर्म देशना दी, गणधरों ने बारह अंगों के रूप में उसका संकलन किया । ' | आगम-पुरुष की कल्पना की गई। जैसे पुरुष के शरीर के भिन्न-भिन्न अंग होते हैं, वैसे ही आगम रूपी के ये बारह अंग माने गये हैं। इसी के आधार पर द्वादशांगी शब्द का प्रयोग होने लगा । पुरुष आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, उपासकदशा, अंतकृदशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक, दृष्टिवाद- ये बारह अंग हैं । आगमों के अध्ययन की एक विशेष परंपरा थी। संघ में उपाध्याय से साधु अंगों की वाचना लेते थे । अपने विद्वान् गुरुजनों से भी वाचना लेते थे । आगमों का मूल पाठ शुद्ध रूप में उच्चारित करना I | सीखते थे । उसे कंठस्थ करते थे । आचार्य उनको सीखे हुए पाठ का अर्थ समझाते थे । व्याख्या और विश्लेषण करते थे। यह सब श्रवण के आधार से चलता था। कोई आगम लिखित नहीं था । गुरु-शिष्य परंपरा से यह क्रम चलता रहा । श्रुतया श्रवण के आधार से चलने के कारण आगमों को 'श्रुत' भी कहा गया है। शास्त्रों को कंठस्थ रखने की परंपरा जिस प्रकार जैनों में थी, वैसी ही बौद्धों और वैदिकों में भी थी। वेदों का अध्ययन गुरु-मुल से ही होता था । विद्वान् पिता, पुत्र को बाल्यावस्था से ही वेदों का पाठ सिखाते थे । अथवा गुरु बह्मचर्याश्रम में वेद पाठ की शिक्षा देते थे। तब वेद भी लिखित नहीं थे । श्रवण के आधार पर या सुनकर सीखे जाने के कारण ही वेदों को श्रुति कहा जाता है। भगवान् बुद्ध द्वारा भाषित पिटकों को भी कंठस्थ परंपरा से ही याद रखा जाता था । १. (क) जैन परम्परा का इतिहास, पृष्ठ : ६६ (ख) श्री केवल नवकार मंत्र प्रश्नोत्तर ग्रन्थ, भाग-४, पृष्ठ : ५३ २. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग-१ पृष्ठ: ५४ ३. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश भाग-२, पृष्ठ २१२ 15
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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