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________________ णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन 'शुचं क्लमयति- अपनयतीति शुक्लम् के अनुसार जो दुःख या शोक को समाप्त कर देता है, वह शुक्ल है। शुक्ल की यह व्युत्पत्ति यहाँ सार्थकता पा लेती है । साधक शुद्ध परमात्म भाव में संप्रतिष्ठ हो जाता है । साधना परिपूर्ण हो जाती है । साधक सिद्धत्व से विभूषित हो जाता है । फिर | किसी भी प्रकार का कोई दुःख अवशिष्ट नहीं रह जाता । 1 ध्यान - बिन्दु उपनिषद् में सुषुम्ना - पथवर्ती कमलों पर ध्यान करने का निरूपण हृदय, ललाट आदि पर विविध कमलों की कल्पना की गई है। उनके आधार पर ध्यान करने का विशेष है । नाभि, हुआ क्रम वर्णित हुआ है, जो मननीय है, जैन आचार्यों द्वारा प्ररूपित पिण्डस्य ध्यान की आग्नेयीय आदि धारणाओं के साथ तुलनीय है।" सार-संक्षेप जैन मनीषियों का चिंतन बड़ा उर्वर और विशिष्ट रहा है। उन्होंने जैन तत्त्वों और साधना की पद्धतियों को अनेक रूपों में व्याख्यात करने का सत्प्रयास किया है, जिससे भिन्न-भिन्न रुचि के साधक अपनी-अपनी भावनानुसार साधना का मार्ग अपना सकें। एक समय था जब भारत में पातंजल योग की पद्धति के अनुरूप, अपने-अपने सिद्धान्तानुसार विभिन्न धार्मिक परंपराओं में साधना क्रम गतिशील हुए। पातंजल योग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि के रूप में आठ अंगों के माध्यम से चित्त वृत्तियों के निरोध तथा परिष्कार का मार्गदर्शन देता है। चित्त वृत्तियों का विशुद्धीकरण साधना में योगाभ्यास में बहुत आवश्यक है। ध्यान का तो साधना में अत्यंत महत्त्व है ही, यम जो व्रतों के समकक्ष है, नियम जो उनके सहायक और परिपोषक हैं, साधना में आवश्यक माने गए हैं 1 योगाभ्यास में संप्रविष्ट होने की भूमिका स्वायत्त करने के लिए यह आवश्यक है कि साधक अपने जीवन में अहिंसा, सत्य, संतोष, ब्रह्मचर्य तथा निर्लोभ - वृत्ति को स्वीकार करे। वह विधिवत् बैठना-उठना सीखे, श्वास-प्रश्वास का नियमन करना जाने, इंद्रियों की योगोन्मुख चंचल वृत्तियों को भोगों से प्रत्याहृत कर आत्मोन्मुखी बनाए। | जैन आगमों में इन सबके मूल बीज प्राप्त हैं। जैन जगत् के महान् मनीषी, सुप्रसिद्ध ग्रंथकार | आचार्य हरिभद्र सूरि ने जैन योगमूलक एक विशिष्ट पद्धति की प्रतिष्ठापना की। इस दृष्टि से निरूपित आठ योगदृष्टियों योग के क्षेत्र में उनकी महान् देन है। १. ध्यान-बिंदु उपनिषद् श्लोक-१२-१४ कल्याण (मासिक, उपनिषद्-अंक) पृष्ठ ६६६, ६६०. 418
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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