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________________ जैन-योग पद्धति द्वारा सिद्धत्व की साधना प्रकर्म 'लोक शाओं ध्यान को प्राप्त होते हैं, जिसके अंत में बाकी रहे चारों अघाति कर्म क्षीण हो जाते हैं, निर्वाण-मुक्ति या सिद्धत्व प्राप्त हो जाता है।' ले हुए तरह मा के ता है, समीक्षा जैसा यथाप्रसंग संकेत किया गया है- आध्यात्मिक यात्रा का अंतिम लक्ष्य सिद्धावस्था है। उसे प्राप्त करने के शास्त्रों में साधनामूलक अनेक विधिक्रम व्याख्यात हुए हैं। मूल बात यह है कि आत्मा का परमज्ञानमय, आनंदमय, शांतिमय, ज्योतिर्मय स्वरूप कार्मिक आवरणों से आछन्न है। वह आछन्नता ही संसार का हेतु है। जब तक यह आछन्नता संपूर्ण रूप में विनाश नहीं पाती, क्षीण नहीं होती, तब तक आत्मा संसार के बंधनों में परिवद्ध रहती है। उन बंधनों को तोड़ना ही आत्मा का अंतिम साध्य है। उन्हें कोई और नहीं तोड़ सकता, स्वयं आत्मा को ही उन्हें तोड़ना होगा, उनका नाश करना होगा। ये कर्मरूपी शुत्रु बड़े प्रबल हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषाय उन्हें बल प्रदान करते हैं। उनके साथ जूझने के लिए बहुत बड़ी आत्मशक्ति की, आंतरिक बल की आवश्यकता है। उस शक्ति को उद्दीप्त करना, बल को जागरित करना साधक का कर्तव्य है। अगले सर्वत्र 1- । यदि 1- her जसके चादर योग इसे प्राप्त करने का मार्ग है। जैसा चर्चित हुआ है, महान् जैन आचार्यों ने जैन साधना पद्धति को जैन योग के रूप में प्रस्तुत किया। बात एक ही है। आत्मा के बंधन को तोड़ना है, किंतु जिनकी रुचि योग में होती है, उन्हें योग का मार्ग प्रिय होता है। योग में ध्यान का महत्त्व है। जैन योग पर लिखने वाले आचार्यों ने पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत आदि के रूप में ध्यान का विशद विवेचन किया, उनके अभ्यास का धारणाओं आदि के माध्यम से मार्ग प्रशस्त किया। ध्यान, मनोजय आदि से संबद्ध अपने अनुभूत तथ्यों का भी उल्लेख किया। उनके संदर्भ में भी इस अध्याय में विश्लेषण-समीक्षण किया गया है। को का ध्यान ध्यानमूलक साधना पथ पर आगे बढ़ता-बढ़ता साधक जब शुक्ल-ध्यान में अग्रसर होता है, तब वह क्रमश: समस्त बाह्य भावों को छोड़ता जाता है, समस्त दु:खों, बंधनों तथा विघ्नों से रहित हो जाता है। १. योगशास्त्र, प्रकाश-११, श्लोक-५३-५६.१. २. ज्ञानार्णव, सर्ग-३७, श्लोक-१. ३. (क) सर्वार्थ सिद्धि-९.२८.४४५.११. (ख) धवला-१३.५, ४, २६.७७.९. (ग) द्रव्यसंग्रह, पृष्ठ : ५६. (घ) नियमसार, तात्पर्या वृत्ति-१२३. (ङ) प्रवचनसार, तात्पर्या वृत्ति ८, १२. 417 HANN5
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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