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________________ स्परता के स्थरता को ध्यान कहा यिक योग सी कारण 1⁄2 कि जैसे के अभ्यास अभ्यास एवं उनमें तो लोग र्य 'कर्मों आ है। न करना अर्थ है । एव वहाँ उज्ज्वल, विलीन नावरण, जैन योग पद्धतिद्वारा की साधना दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चारों कर्म अंतर्मुहूर्त के स्वल्पकाल में ही सर्वथा क्षीण हो जाते हैं। इसके परिणाम स्वरूप योगी को साधकवर्य को केवल ज्ञान, केवल दर्शन, जिन्हें प्राप्त कर लेना बड़ा कठिन है, प्राप्त हो जाते हैं । उस ज्ञान, दर्शन द्वारा वे समस्त लोक एवं आलोक को ज्ञात और | आलोकित कर लेते हैं । भूमंडल पर जीवों को उद्बोधन करते हुए पर्यटन करते हैं । केवली की उत्तर क्रिया और समुद्घात केवल ज्ञान और केवल दर्शन से युक्त योगी के जब मनुष्य-भव संबंधी आयुष्य अंतर्मुहूर्त्त प्रमाण बाकी रहता है, तब सूक्ष्म - क्रिया- अप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्ल-ध्यान होता है, जिसका पहले परिचय | दिया गया है। यदि उनके आयुष्य-कर्म की तुलना में नाम कर्म, गोत्र कर्म और वेदनीय कर्म की स्थिति अधिक होती है तो वे उनका सामंजस्य करने के लिए समुद्घात करते हैं। विशेष समुद्धात जैन शास्त्रों का एक पारिभाषिक शब्द है, जो सम्+उत्+घात इन तीन शब्दों से मिलकर बनता है। सम् का अर्थ सम्यक् या अच्छी तरह से है। उत् का अर्थ उत्कृष्टता या प्रबलता से है । घात का अर्थ कर्मों को ध्वस्त करना है। जहाँ इस रूप में कर्मों का क्षय किया जाता है, उसे समुद्घात कहते हैं। समुद्धात द्वारा नाम कर्म, गोत्र कर्म तथा वेदनीय कर्म की स्थिति का और उनके रस विपाक का नाश हो जाता है। उसके परिणाम स्वरूप उन कर्मों की स्थिति आयुष्य कर्म के सदृश हो जाती है। | समुद्घात का विधि-क्रम केवली भगवान् पहले समय में अपने आत्म- प्रदेशों को बाहर निकालकर, फैलाकर ऊपर एवं नीचे | लोकांत तक दंड के आकार में बना लेते हैं या दंड की तरह फैला लेते हैं । वे दूसरे समय में पूर्व तथा | पश्चिम दिशा में लोकांतपर्यंत अपने आत्म-प्रदेशों का कपाट- किवाड़ की तरह विस्तार करते हैं। तीसरे समय में दक्षिण और उत्तर दिशा में अपने आत्म प्रदेशों को मंधान की तरह विस्तीर्ण कर देते हैं तथा चौथे समय में, वे समस्त लोक के बीच के अंतरों को आत्म-प्रदेशों से भर देते हैं। इस प्रकार २. (क) योगशास्त्र, प्रकाश - ११, श्लोक - ४९, ५०. १. योगशास्त्र, प्रकाश - ११, श्लोक-२१-२४. (ख) ज्ञानार्णव, सर्ग - ४२, श्लोक - ४३-४७. 415
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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