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________________ | णमो सिध्दाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन योग है, काय भी एक योग है। तब जो काय या शरीर की स्थिरता सिद्ध होती है, उसे स्थिरता के आधार पर ध्यान मानना संगत है। अत एव जिस प्रकार छद्मस्थ (असर्वज्ञ) के मन की स्थिरता को | ध्यान कहा जाता है, उसी प्रकार केवली (सर्वज्ञ) की कायिक स्थिरता- निश्चलता को भी ध्यान कहा जाता है। PREMilletime अयोगी के साथ ध्यान का संबंध ____ जब साधक चतुर्दश गुणस्थान में पहुँचता है, तब आत्मा के मानसिक, वाचिक एवं कायिक योग निरुद्ध हो जाते हैं। अयोगावस्था में विद्यमान केवली में योग का अस्तित्व नहीं रहता। इसी कारण उन्हें अयोगी कहा जाता है। फिर भी वहाँ ध्यान का होना कहा गया है। इसका कारण यह है कि जैसे घड़े बनाने वाले कुंभकार का चक्र, जो पहले घुमाया हुआ हो, फिर न घुमाने पर भी पहले के अभ्यास के कारण घूमता रहता है, उसी तरह मन, वचन, काय के योगों के न होने पर भी पहले के अभ्यास के कारण अयोगी में भी ध्यान होना माना जाता है। अयोगावस्था में भी केवली में उपयोगात्मक भाव-मन का अस्तित्व रहता हैं। अत एव उनमें भाव-मन के कारण ध्यान होना स्वीकार किया जाता है। ___जैसे किसी को पुत्र नहीं है, किंतु पुत्र द्वारा करने योग्य कार्य कोई दूसरा व्यक्ति करता है तो लोग उसे पूत्र कहते हैं, क्योंकि वहाँ वह कार्य हो रहा है, जो पुत्र करता है। उसी तरह ध्यान का कार्य 'कर्मों की निर्जरा' वहाँ विद्यमान है। अत: निर्जरा रूप कार्य का कारण रूप ध्यान वहाँ माना जाता है। एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। ध्यान शब्द ध्येय-धातु से बना है। इसका एक अर्थ चिंतन करना या ध्यान करना है। उसका दूसरा अर्थ निरोध करना भी है और योग-रहित होना भी इसका अर्थ है। अत: योग रहितता के अनुसार अयोगी केवली में भी ध्यान होना स्वीकार किया गया है। जिनेश्वर देव ने अयोगी केवली अवस्था में भी ध्यान सधना प्रतिपादित किया है। अत एव वहाँ ध्यान का अस्तित्व संगत है। शुक्ल-ध्यान की फल-निष्पत्ति उपर्युक्त ध्यान विषयक विवेचन के परिप्रेक्ष्य में यह ज्ञातव्य है कि जब ध्यान रूप अत्यंत उज्ज्वल, प्रबल अग्नि प्रज्वलित होती है, तो यतीन्द्र-योगी शिरोमणी के समस्त घाति कर्म क्षण भर में विलीन हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में उनके एकत्व-वितर्क शुक्ल-ध्यान के परिणाम-स्वरूप ज्ञानावरण, १. योगशास्त्र, प्रकाश-११, श्लोक-११. २. योगशास्त्र, प्रकाश-११, श्लोक-१२. 414
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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