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________________ सिद्धत्व-पर्यवसित जैन धर्म, दर्शन और साहित्य | EEEEEEEEEEEE आज भी भगवान् महावीर के काल से प्रवर्तित चर्या का अनुसरण करते हैं तथा पैदल परिभ्रमण करते हैं। भिक्षा द्वारा जीवन निर्वाह करते हैं। सर्वथा अपरिग्रही होते हैं। ज्ञान-ध्यान, स्वाध्याय-साधना, एवं धर्म-प्रसार में अपने जीवन का उपयोग करते हैं। केवल बौद्ध ही नहीं और भी धार्मिक परंपराओं के संन्यासियों और साधुओं का आज वैसा कोई समुदाय नहीं है, जो अपने शास्त्रों द्वारा निर्धारित आचार का पालन करते हुए कार्यरत हो। यह कोई कम आश्चर्य की बात नहीं है कि आज के अत्यधिक साधन-बहुल युग में भी जैन | साधु-साध्वियाँ महाव्रतमूलक परंपरा का सर्वथा पालन करते हैं। संयम और आचार की महत्ता सहस्रों वर्षों में आए हुए अनेक परिवर्तनों के बावजूद जैन परंपरा एवं धर्म अपरिवर्तित और अविकृत रहे, इसका मुख्य कारण था कि संयम और आचार की मौलिकता किसी भी स्थिति में भग्न नहीं होनी चाहिए, वह सदैव अक्षुण्ण रहनी चाहिये। जैन धर्म का यह मुख्य सिद्धान्त रहा। 'आचार: प्रथमो धर्म:'- यह सिद्धांत इस संस्कृति में सर्वोपरि रहा। किसी भी मूल्य पर आचारहीनता को स्वीकार नहीं किया गया। जैन श्रावक समाज द्वारा भी आचार-मर्यादा को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया। धर्म के व्यापक प्रसार के नाम पर सुविधावाद को कभी स्वीकार नहीं किया गया क्योंकि जैन आचार्यों का यही चिंतन रहा कि यदि सुविधाओं को जरा भी महत्त्व देकर आचार के नियमों में शिथिलता लाई गई तो वह उत्तरोत्तर वृद्धि पाती जाएगी तथा बढ़ते-बढ़ते एक दिन मूल को ही बदल देगी। इसलिये आचार में दुर्बलता लाना कभी किसी को स्वीकार्य नहीं रहा तथा समितियाँ और गुप्तियाँ आचार को सुदृढ़ बनाए रखने में सदैव सहायक रही। 'चइज्ज देहं न हि धम्मसासणं'- देह को त्यागना पड़े तो त्याग दो किन्तु धर्म-शासन को, धर्म की आज्ञाओं और सिद्धांतों का कभी भी त्याग मत करो। जैन धर्म के इतिहास में ऐसे अनेक प्रसंग आते हैं, जहाँ साधकों ने धर्म की रक्षा के लिये, धार्मिक जीवन को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अपने प्राणों की आहुति तक दे दी। इसी का यह परिणाम है कि सहस्राब्दियों के व्यतीत होने पर भी जैन धर्म आज अक्षुण्ण है। “जैन धर्म पुरुषार्थ-सिद्धि से सर्वार्थ-सिद्धि की सफल तीर्थ-यात्रा है। वह सिद्ध-पुरुषों अर्थात् शूरवीरों का धर्म है।" २ ।। युग का प्रभाव है कि जन-जन के जीवन में, दैनंदिन व्यवहार में तो धार्मिकता का वह समुज्ज्वल रूप कम दृष्टिगोचर होता है पर श्रद्धा और विश्वास के रूप में जैन धर्म के आदर्शों के प्रति जन-जन पही और जो धर्म नेक हार वर्षों १. उपमिति भव प्रपंच कथा (प्रथम व द्वितीय खण्ड), पृष्ठ : ६०८. २. तीर्थंकर (मासिक) (णमोकार मंत्र विशेषांक- १), वर्ष १०, अंक ७, ८ (नव.-दिस. १९८०), पृष्ठ : ७४. PART BAR
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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