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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनशीलन
होता रहा, उससे मैं प्रतिक्रांत होता हूँ- निवृत्त होता हूँ। आत्म-साक्षी से मैं उनकी निन्दा एवं गर्दा करता हूँ, उस ओर से आत्मा का व्युत्सर्जन करता हूँ, पूर्णत: उनका परित्याग करता हूँ।" इस प्रतिज्ञा के साथ एक साधक अपने को संयमी साधना में समर्पित करता है। वह निरपवाद रूप में व्रत-पालन के लिए संकल्पबद्ध होता है। जीवन का धागा भले ही टूट जाए, किंतु महाव्रतों की रज्जु जीते जी कदापि टूट न पाए, सर्वविरति साधक का यह निश्चय होता है, फिर वह प्रमत्त कैसे ? यह प्रश्न है, वह तो भलीभाँति जागरित है।
है। ज्योंदुर्गम दुर्ग आत्मप्रदेश उत्साह से 'अप्रमत्त'
जैस
गुणस्थान में पहुँचत्त गुणस्थान तब वह पराभव है
समीक्षा
जैसा यथाप्रसंग वर्णित हुआ है, यहाँ प्रमत्त शब्द बाह्य प्रमाद युक्तता की दृष्टि से प्रयुक्त नहीं हुआ है। यदि बाह्य प्रमाद विद्यमान रहेगा तो साधक इस गुणस्थान पर नहीं टिक पाएगा। नीचे गिर जाएगा।
प्रमाद या प्रमत्तता का आशय आत्म-प्रदेशगत उस अनुत्साह रूप अंतर्वृत्ति से है, जो संयम के प्रति आंतरिक उत्साह उभरने नहीं देती। उसका हेतु अरति आदि मोह का उदय बताया गया है। यहाँ | प्रमाद आस्रव अनवरूद्ध रहता है।
पंडित सुखलालजी संघवी ने षष्ठ गुणस्थान के साथ रहे प्रमाद को साधक की आत्म-कल्याण के अतिरिक्त लोक-कल्याण की भावना और तदनुकूल प्रवृत्ति के साथ जोड़ा है। इससे कभी-कभी थोड़ी बहुत मात्रा में प्रमाद का होना संभाव्य है।'
यह व्यवहार की भूमि से की गई विवेचना प्रतीत होती है, अन्यथा लौकिकता में संलग्न होकर थोड़ी मात्रा में भी संयम के प्रति असावधानी, उपेक्षा दिखलाना, उतने समय के लिए संयम से पृथक् होना है। संयमी द्वारा बाह्य जीवन में व्यक्त उपेक्षा या प्रमाद इस गुणस्थान में वर्जित है।
प्रमत्त-संयत या षष्ठ गुणस्थानवर्ती साधक अपने चर्यात्मक जीवन में जब-जब प्रमाद, असावधानी या अजागरूकता को प्रश्रय देता है, तब तक वह अपने गुणस्थान से अध:पतित होता रहता है, पर आत्म-प्रदेशगत प्रमाद-संयम के प्रति समय-समय पर आत्म-प्रदेशों में उभरने वाली जो अनुत्साहात्मक स्थिति है, वह नितांत आभ्यंतरिक है।
८. निद
आट अर्थ स्थूल से निवृत्ति में आत्मा से लोहा
मोह गुणस्थान आवश्यक पहले का कारण इ
उपशम
७. अप्रमत्त-संयत गुणस्थान
आत्मा अपनी शुद्ध अंत:परिणति का संबल लिए अरति आदि मोह-प्रसूत प्रमाद से जूझती रहती
इस श्रेणी।
उप
१. जैन सिद्धांत दीपिका, प्रकाश-४, सूत्र-२२.
२. दर्शन और चिंतन, खंड-२, पृष्ठ : २७२.
१. श्री के
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