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________________ सिद्धत्व-पथ गणस्थानमूलक सोपान-क्रम जीवन जीते हैं, परन्तु गृहवर्ती साधनोन्मुख व्यक्ति जिन पर माता, पिता, पत्नी, पुत्र तथा अन्य परिवारिक जनों के योगक्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति तथा प्राप्त की रक्षा) का दायित्व है, जिनके अनेक सामाजिक संबंध हैं, कर्त्तव्य हैं, केवल वैयक्तिक जीवन नहीं जी सकते तथा दायित्व और कर्त्तव्य-निर्वाह की दृष्टि से उनकी एक सी आवश्यकताएं भी नहीं होती। अत एव व्रतों के ग्रहण में जो आंशिकता है, वहाँ एकरूपता नहीं हो सकती। आंशिकता अनेक कोटियों की हो सकती है। साधक अपनी तितिक्षा-वृत्ति और आवश्यकताओं को तोलता है, जैसी क्षमता या सामर्थ्य अपने में पाता है, उसी मात्रा में वह व्रत, संयम स्वीकार करता है, अथवा असत् वृत्तियों का त्याग करता है। इस पाँचवें गणस्थान को देशविरति के अतिरिक्त संयतासंयति, व्रताव्रती, धर्माधर्मी आदि अनेक नामों से अभिहित किया जाता है, जो एक ही अर्थ के द्योतक हैं। ६. प्रमत्त-संयत : सर्वविरति गुणस्थान देशविरति गुणस्थान में संयम की साधना है, पर आंशिक या एकदेशीय है। विकास या ऊर्ध्वगमन जिसका स्वभाव है, वह अनंत शक्तियों की पुंजात्मा यद्यपि तब तक उसका शक्ति-पुंज अधिकांशत: आवृत्त होता है, अन्त:पराक्रम का संबल लिए संयम की ओर आगे बढ़ना चाहती है। जीव के अंत:स्थित देव और दानव- स्वभाव और परभाव का तुमुल संग्राम छिड़ जाता है। जब देव या आत्मा का शुद्ध-भाव दानव या अशुद्ध-भाव को पराभूत कर देता है तो शीघ्र ही उसकी गति में एक विलक्षण वेग या तीव्रता आ जाती है और आत्मा आंशिक स्थान पर संपूर्ण संयम का साम्राज्य प्राप्त कर लेती है। यह आत्मा की सर्वविरति दशा है। विकास की मंजिल पर पहुँचने का यह छठा सोपान है। शास्त्र की भाषा में तो इसे सर्वविरत, प्रमत्त संयत या प्रमादी साधु गुणस्थान कहा जाता है। सर्वविरत- महाव्रत ग्रहण की भाषा इस प्रकार है "करेमि भंते ! सामाइयं सव्वं सावज्ज जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवाए, तिविहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काएणं, न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि ! तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । १ । "भगवन् ! मैं सामायिक-व्रत ग्रहण करता हूँ। समस्त सावद्य-योग का यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान करता हूँ। मैं मन, वचन, एवं शरीर द्वारा कोई पाप कर्म न स्वयं करूंगा, न अन्य से कराऊंगा और न करने वालों का समर्थन या अनुमोदन करूंगा। अब तक जो एतत्प्रतिकूल मुझ से १. आवश्यक-सूत्र, अध्ययन-१, प्रतिज्ञा-सूत्र, पृष्ठ : ७. 333 ToRECHES Fire
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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