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________________ रैशीलन इन स्तित्व , वायु के इन , तब वतन्त्र तधर्म, कोई आत्मा नहीं नको है । सिद्धत्व प्रथ: गुणस्थानमूलक सोपान क्रम जैन दर्शन आत्मा को द्रव्य की अपेक्षा से नित्य मानता है। शरीर अशाश्वत है, अनित्य है। आत्मा उसे छोड़ कर अपने द्वारा संचित कर्मों के अनुसार दूसरा शरीर अपना लेती है । सम्यक्त्वी सदैव ऐसा चिंतन करे कि आत्मा नित्य है । भारत के आस्तिकवादी दर्शनों में आत्मा को नित्य माना गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी यह प्रसंग बड़े ही सुंदर रूप में चित्रित किया गया है । अर्जुन जब मोह से व्याकुल हो गया था, देह-नाश को ही जीवन की समाप्ति मानने लगा, तब योगीराज श्रीकृष्ण ने उसे आत्मा के नित्यत्व, अधिकारित्व आदि का तत्त्व-बोध दिया। आत्मा के नित्यत्वमूलक स्वरूप का चिंतन-अनुभव करने से आस्था, श्रद्धा या विश्वास को प्रबलता एवं सुस्थिरता प्राप्त होती है । संसारवर्ती आत्मा और कर्मों का गहरा संबंध है । जैन दर्शन यह मानता है कि आत्मा ही कर्म करती है, कोई दूसरा उससे कर्म नहीं करवाता। वह कर्म करने में स्वतंत्र है । एक सम्यक्त्वी के मन में ऐसा दृढ़ विश्वास होना चाहिए । जैन आगमों में इस संबंध में बहुत ही स्पष्ट रूप में उल्लेख हुआ है। कहा गया है- दुःखों, सुखों की कर्ता, विकर्ता आत्मा ही है । दूषित आचरण में संलग्न आत्मा अपना शत्रु है तथा सुप्रस्थितसदाचरण में संलग्न आत्मा अपना मित्र है। जिस प्रकार आत्मा शुभ, अशुभ कर्म करती है, उसी प्रकार वह उनका फल भोगती है । कोई दूसरा | उनका फल नहीं भोगता । अर्थात् अपने द्वारा किए गए कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। सम्यक्त्वी के मन में यह भावना सदा बनी रहनी चाहिए । आत्मा कर्मों के आवरण को मिटाकर मुक्तावस्था प्राप्त करती है । यही सत्य है । सम्यक्त्वी के मन में यह धारण भी सदा स्थिर रहनी चाहिए। मोक्ष, मुक्तत्व या सिद्धावस्था आत्मा का सर्वोपरि लक्ष्य है। उसे प्राप्त करने का संवर- निर्जरा | मूलक साधना रूप उपाय है। अनुचिन्तन ऊपर विभिन्न अपेक्षाओं से सम्यक्त्व के संदर्भ में जो विस्तृत विवेचन किया गया है, उसका यह | लक्ष्य है कि बहुत कठिनाई से प्राप्त होने योग्य सम्यक्त्व अबाधित, सुरक्षित, परिपुष्ट और समुन्नत बना २. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन- २०, गाथा - ३७. १. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय-२ श्लोक-२०, २२- २५. ३. निणधम्मो, पृष्ठ ११८. 327
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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