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________________ सिद्धत्व-पर्यवसित जैन धर्म, दर्शन और साहित्य या। वेमर्श धि में गा में मात्मा ने इन ‘नहीं सत्य उन्होंने राज्य-सुख का परित्याग कर अपने आपको परम सुख की खोज में लगाया। उन्होंने अपनी गवेषणा का निष्कर्ष चार आर्य सत्यों में प्रस्तुत किया :(१) दुःख है, (२) दुःख का कारण है, (३) दुःख का नाश किया जा सकता है, (४) दु:ख के नाश का उपाय है। इन्हीं चार आर्य सत्यों के विस्तार से बौद्ध धर्म, दर्शन और बौद्ध वाङ्मय प्रस्तुत है। सांख्य दर्शन ने भी आध्यात्मिक आधिभौतिक और आधिदैविक दुःखों से पीड़ित जगत् को देखकर उनसे छूटने की प्रेरणा दी। अर्थात् सांख्य दर्शन का प्रारंभ भी दुःखवाद से होता है। उसने दुःखनाश के लौकिक, पारलौकिक उपायों को ऐकांतिक और आत्यंतिक रूप में स्वीकार नहीं किया। तत्त्वज्ञान को ही दु:खों से छूटने का मार्ग बताया। जैन परंपरा के वर्तमान युग के अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने, जो अपनी साधना के परिणाम-स्वरूप सर्वज्ञत्व प्राप्त कर चुके थे, प्राणियों को दु:ख से छूटने का ही नहीं अपितु परम आनंद-प्राप्ति का मार्ग बतलाया, जो संयम और आत्मसाधना के रूप में विकसित हुआ। सत्य की खोज के ये विभिन्न उपक्रम भारतीय चिंतनधारा के महत्त्वपूर्ण आयाम हैं। भारतीय संस्कृति गहन चिंतन, मनन और निदिध्यासन द्वारा कर्म संस्कार पाता है। संस्कार प्राप्त कर्म असत्य और अनाचरण की विकृतियों से विमुक्त होता है। वैसे चिंतन और कर्म की समन्वित चेतनामयी शाश्वत धारा संस्कृति है। __भारत में इस प्रकार का जो विचार, आचार और तन्मूलक तत्त्वचिंतन गतिशील, उत्तरोत्तर परिपुष्ट' एवं विकसित हुआ, वह भारतीय संस्कृति के नाम से प्रसिद्ध है। संस्कृति के साथ किसी देश विशेष का विशेषण लगाना युक्ति संगत नहीं होता क्योंकि उसका संबंध तो उद्बुद्ध मानवीय चेतना के साथ होता है। भारत में इस कोटि का चिंतन पल्लवित, पोषित और संवर्धित हुआ, इसलिये उसे भारतीय संस्कृति का नाम दिया जाता है किंतु यह ज्ञातव्य है कि भारतीय कही जाने वाली संस्कृति केवल भारत या किसी देश विशेष तक ही सीमित नहीं है, उसकी व्यापकता विश्वव्यापिनी है। ___भारतीय संस्कृति की मुख्यत: वैदिक-परंपरा तथा श्रमण-परंपरा- ये दो धाराएं हैं, जिनका अपना विशिष्ट चिंतन तथा विशाल वाङ्मय हमें प्राप्त है। सुख प में व को नहीं, ग में प्रदान १. बौद्ध दर्शन मीमांसा, षष्ठ परिच्छेद, पृष्ठ : ५४. २. सांख्यकारिका- कारिका-१,२, पृष्ठ : १,२.
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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