SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण आदि का वर्णन पन्न करती है। लेषण करते हुए है। कर्म-वर्गणा एक प्रकार की अत्यंत सूक्ष्म रज है। उसे सर्वज्ञ या अवधिज्ञानी ही जान सकते हैं। शुभ एवं अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट और संश्लिष्ट होकर कर्म पुद्गल आत्मा के स्वरूप को ढकते हैं, विकृत करते हैं, शुभ या अशुभ फल के कारण बनते हैं। केवलज्ञान, केवलदर्शन, आत्मिक-सुख, क्षायक-सम्यक्त्व, अटल-अवगाहन, अमूर्त्तत्व, अगुरुलधुत्व एवं लब्धि- आत्मा के ये आठ गुण हैं। इनको आवृत्त करने के कारण कर्मों के आठ भेद हैं। ये निम्नांकित हैं सम्यग्ज्ञान और त्मक निजस्वरूप को प्राप्त करता स करो। (इससे के अधिपति हो १. ज्ञानावरणीय-कर्म । आत्मा का पहला गुण केवलज्ञान है। जो कर्म-पद्गल उसको रोकते हैं, वे ज्ञानावरणीय-कर्म कहलाते हैं। संसार में जितनी आत्माएँ हैं, उन सबमें अनंत ज्ञान विद्यमान है, परंतु जब तक ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय नहीं होता, तब तक वह ज्ञान उससे ढका रहता है। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय हो जाने से केवल ज्ञान प्रगट होता है। श्वत है, अनंत वाली स्थितियों नकी आत्माओं अधिकृत कर २. दर्शनावरणीय-कर्म आत्मा का दूसरा गुण केवल-दर्शन है, वह भी ज्ञान की तरह सब आत्माओं में विद्यमान है। इसको आवृत करने वाले कर्म पुद्गल दर्शनावरणीय कहलाते हैं। इसका क्षय होने से केवल दर्शन प्रगट होता है। त होने वाले वर्णन किया ३. वेदनीय-कर्म ___आत्मा का तीसरा गुण आत्मिक सुख है। इसको रोकने वाले कर्म-पुद्गल वेदनीय कर्म कहलाते हैं। साता-वेदनीय और असाता-वेदनीय के रूप में इसके दो भेद हैं। साता वेदनीय के परिणाम स्वरूप भौतिक-सुख प्राप्त होते हैं तथा असाता वेदनीय के परिणाम स्वरूप भौतिक दुःख प्राप्त होते हैं। | वेदनीय कर्म का क्षय होने से ये दोनों ही मिट जाते हैं। म पुद्गल हैं, र योग रूपी कि कर्मदल लगते रहते ४. मोहनीय-कर्म आत्मा का चौथा गुण सम्यक श्रद्धान् है। जो कर्म पुद्गल उसको रोकते हैं, उन्हें मोहनीय कर्म कहा जाता है। सम्यक् श्रद्धान् आध्यात्मिक विकास का प्रथम चरण है। उसके बिना आत्मोपासना संभव नहीं होती। करती रहती ५. आयुष्य-कर्म आत्मा का पाँचवां गुण अटल अवगाहन है। अटल-अवगाहन या शाश्वत-स्थिरता को जो 298
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy