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________________ उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण जससे लंब २. अनंत दर्शन दर्शनावरणीय-कर्म का सर्वथा क्षय होने से उन्हें केवल दर्शन प्राप्त है। इससे वे लोक के अलोक स्वरूप को देखते हैं। वन खों ३. अव्याबाध सुख वेदनीय-कर्म सर्वथा क्षय होने से वे सब प्रकार की पीड़ाओं से रहित हैं। उन्हें अव्याबाधबाधा रहित अनंत सुख प्राप्त हैं। ४. अनंत चारित्र मोहनीय-कर्म का सर्वथा क्षय होने से उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व तथा यथाख्यात चारित्र प्राप्त है। वे सदैव आत्म-स्वभाव में अवस्थित हैं। ५. अक्षय स्थिति ___ आयुष्य-कर्म का सदा क्षय होने से उन्हें सर्वथा अनंत स्थिति प्राप्त है। ६. अमूर्त्तता नाम-कर्म का सर्वथा क्षय होने से वे वर्ण, गंध, रूप, रस, स्पर्श रहित हैं, क्योंकि जब शरीर होता है, तभी वर्ण आदि होते हैं। सिद्ध भगवान अशरीरी हैं, अरूपी हैं, अमर्त्त हैं। ७. अगुरु लघु गोत्र कर्म का सर्वथा क्षय होने से भारीपन, हलकापन, ऊँचापन, नीचापन आदि के व्यवहार से रहित हैं। ८. अनंत वीर्य अंतराय कर्म के सर्वथा क्षीण होने से वे अनंत दान, अनंत लाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग तथा अनंत वीर्य-युक्त हैं अर्थात् वे समग्र लोक को अलोक कर सकते हैं तथा अलोक को लोक कर सकते हैं। ऐसी सिद्धों में स्वाभाविक शक्ति होती है, किंतु वे अपनी वीर्य-शक्ति या पराक्रम का कभी उपयोग नहीं करते, न ही किया है और न ही करेंगे, क्योंकि उनका पुद्गल के साथ कोई संबंध नहीं है। अत: वे अपने अनंत वीर्य, अनंत शक्ति के गुण द्वारा अपने आत्म-गुणों में परिणत हैं। वहाँ उनकी शक्ति उसी रूप में विद्यमान है। अन्य किसी रूप में परिणत नहीं होती। १. (क) महाप्रभाविक नवस्मरण, पृष्ठ : ५४,५५. (ख) जिनतत्त्व, भाग-६, पृष्ठ : ६२-६४. (ग) श्रावक जीवन, भाग-४, पृष्ठ : ६८. 296
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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