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________________ उत्तरवर्ती जैन अन्यों में सिद्ध-पद का निरूपण की वासना गों विषयों i, कारणं रत्नत्रय इस पर नन मात्र जिस प्रकार नेत्रहीन के लिए दर्पण निष्प्रयोज्य है, वैसे ही मन को परिशुद्ध नहीं किया तो तपस्वी साधक का ध्यान करना निष्प्रयोजन है, क्योंकि मन की शुद्धि के बिना वास्तव में ध्यान होता ही नहीं, केवल ध्यान की औपचारिकता ही होती है। जो सिद्धि- मुक्ति पाने की इच्छा रखते हैं, उनको अवश्य ही मन की शुद्धि करनी चाहिए। मन की शुद्धि के बिना तप का आचरण, श्रुत का अभ्यास तथा यमों- व्रतों का पालन केवल शरीर के लिए दण्ड या कष्टप्रद है। उनसे मोक्षमूलक लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। मन की शुद्धि द्वारा योगी- साधक राग तथा द्वेष को जीत सकता है। आत्मा का मालिन्य| कालुष्य त्याग सकता है। ऐसा कर वह अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित हो सकता है।' मन के भेदों का वर्णन करने के अनंतर ग्रंथकार योगाभ्यासी को सूचित करते है कि उसे बाहिरात्म-भाव का परित्याग करना चाहिए। अंतरात्म-भाव के साथ सामीप्य, अनिवृत्तता स्थापित करनी चाहिए तथा परमात्म-भाव को प्राप्त करने के लिए निरंतर परमात्मा का ध्यान करना चाहिए।' मा तीनों फान की इच्छुक परमात्म-भाव और रत्नत्रय ह उसी आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में आत्मा और रत्नत्रय के अभेद का वर्णन करते हुए एक अपेक्षा से आत्मा की उस यात्रा का वर्णन किया है, जो उसको परमात्म-भाव तक पहुँचाती है। वे लिखते हैं कि वास्तव में यति- साधक की आत्मा ही सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूप है। है जो योगी- साधक मोह का परित्याग कर अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को जानता है, वह उसका सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र है। - समस्त दुःखों का हेतु आत्म-विषयक अज्ञान ही है, जिसका आत्म-ज्ञान से नाश होता है। जो आत्म-ज्ञान से विवर्जित हैं, वे तपश्चरण करके भी दु:खों का नाश नहीं कर सकते । न होता गोक्ष के पान के जाता तत्त्वत: आत्मा चैतन्यमय- चेतन स्वरूप है। कर्मों के संयोग के कारण वह शरीर धारण करती है, जब वह शुक्ल-ध्यान रूपी अग्नि से समस्त कर्मों को भस्म कर देती है तब निरंजन, निर्मल होकर सिद्धात्मा बन जाती है। त एव है, जो १. योगशास्त्र, प्रकाश-४, श्लोक-३४, ३५. २. योगशास्त्र, प्रकाश-१२, श्लोक-६. ३. योगशास्त्र, प्रकाश-४, श्लोक-१-४. 280
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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