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उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण
उसे कूट |
जो अक्षर वार रूप
क है कि
उन्होंने उन कषायों को जीतने का मार्ग बताते हुए लिखा है- क्षांति- क्षमाशीलता द्वारा क्रोध को, मृदृत्व- मृदृता या मार्दव द्वारा मान- अहंकार को, आर्जव- ऋजुता या सरलता द्वारा माया- छल या प्रवंचना को तथा अनीहा (इच्छा का अभाव)- नि:स्पृहता द्वारा लोभ को जीतना चाहिए। । कषायों को जीतने हेतु इन्द्रियों पर नियंत्रण करना आवश्यक है। वैसा किए बिना कोई उन्हें जीतने में सक्षम नहीं हो पाता। जैसे हेमंत ऋतु- मार्गशीर्ष और पौष की भंयकर सर्दी को प्रज्वलित आग के बिना कौन नष्ट कर सकता है ? वैसे ही इंद्रियजय के बिना कषाय कैसे जीते जा सकते हैं ?
इन्द्रियाँ चंचल अश्वों के सदश हैं। जब वे नियंत्रण में नहीं होती तो कृत्सित- विपरीत मार्ग में चली जाती हैं और जीव को नरक रूप भयावह वन में खींच ले जाती हैं। जो जीव इंद्रियों पर विजय नहीं कर पाता, वह नरकगामी होता है।
जो इंद्रियों द्वारा पराभूत हो जाता है, विजित हो जाता है, उसे कषाय भी पराजित कर देते हैं।
संकोच
। जाता
वाला
करता
है।
जैसे शक्तिशाली पुरुष किसी सुंदर भवन से ईंटों को खींच लेता है, निकाल लेता है, तत्पश्चात् उस भवन को कौन नहीं तोड़ सकता ?
जिन इंद्रियों को विजित- नियंत्रित नहीं किया गया तो वे मनुष्यों के कुल का नाश कर डालती है तथा उनके कर्म-बंध का हेतु बनती हैं।'
इस प्रकार कषाय-विजय तथा इंद्रिय-विजय का परिणाम बतलाकर आगे ग्रंथकार ने इंद्रियासक्ति का फल बताया है। अनेक उदाहरण देते हुए प्रगट किया है कि स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत्रइन पाँचों इंद्रियों का एक-एक विषय ही नाश का कारण है तो फिर पाँचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन से तो निश्चित रूप से नाश होगा ही।
जाने
श्यक
इन संबंध में एक बहुत प्रसिद्ध श्लोक है
कुरंग-मातंग-पतंग भंगा, मीना हता पंचभिरेव पंच।
एक: प्रमादी सकथं न हन्यते, य: सेवते पंचभिरेवपंच।। अर्थात् हिरण- श्रोत्रेन्द्रिय, हाथी- स्पर्शनेन्द्रिय, पतंगा- चक्षुइन्द्रिय, भ्रमर- घ्राणेन्द्रिय, मीन
१. योगशास्त्र, प्रकाश-४, श्लोक-२३-२७, पृष्ठ : १२०, १२१. २. योगशास्त्र, प्रकाश-४, श्लोक-२८-३३, पृष्ठ : १२१, १२२.
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