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Pradeणमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक अनुशीलन
आत्मा को वह किस प्रकार, कैसे जानता है ? इसके समाधान में बतलाया गया है— सिद्ध, बुद्ध, एकचित्त, चमत्कार मात्र- चिन्मय-स्वरूप, आत्म-तत्त्व के सम्यक्-श्रद्धान, सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्अनुभव रूप चारित्र युक्त- सुन्दर स्वभाव रूप से आत्मा का अनुभव करना, अपने आपको शुद्ध रत्नत्रय रूप जानने की पद्धति है, तदनुरूप जानता है। | वह आत्मा कैसी है ? इसका समाधान यह है कि यह आत्मा निरंजन और सचेतन है। जो आत्मा अंजनरूप कालुष्य से रहित होती है, उसे निरंजन कहा जाता है। जो शुद्धोपयोग मूलक स्वरूप से उत्पन्न चेतना के साथ अवस्थित है, उसे सचेतन आत्मा कहा जाता है। ___ सचेतन शब्द यहाँ स्थूल चेतना के अर्थ में न आकर शुद्ध उपयोगमय चैतन्य के अर्थ में प्रस्तुत
हुआ है।
___वह आत्मा को शुद्ध-भावस्वरूप समझता है। विशुद्ध निश्चय-नय की दृष्टि से वह आत्मा शुद्ध कही जाती है, जो मिथ्यात्व, राग आदि दोषों से परिवर्जित है।
भाव का अभिप्राय समझाते हुए बतलाया है कि यह शब्द संस्कृत की 'भू'-धातु से बना है। भू-धातु सत्ता के अर्थ में है। तदनुसार जो सतरूप में होता है, वह भाव होता है। वह अपने यथार्थ रूप में शुद्ध-भाव कहा जाता है। उस शुद्ध-भाव में जो टिका रहता है उसे शुद्ध भावत्व कहा जाता है।
जो इस प्रकार आत्मा की भावना करता है। आत्मभाव में रमण करता है, आत्मा की आराधना एवं उपासना करता है। वह ज्ञानी पुरुष है। उसी को निश्चित रूप में दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रात होता है। परम योगीश्वर वीतराग प्रभु ने यह प्रतिपादित किया है। ___ उपर्युक्त तत्त्व को समझकर आसन्न-भव्यजन, जिसमें भव्यत्व सन्निकटस्थ है, जिसमें मोक्ष की अभिलाषा है, रुचिपूर्वक अपनी शुद्ध आत्मा का अनुभावन, चिंतन करे । शुद्ध आत्मभाव में रमण करे ।
रत्नत्रय का यह जो विवेचन हुआ है, उसका आधार शुद्ध-नय है। उसके अनुसार आत्मभाव की ही प्रमुखता है। शुद्धोपयोग द्वारा आत्म-परिणमन से सम्यक्त्व सिद्ध होता है, तत्संबंधी सम्यक्-ज्ञान निष्पन्न होता है। पुनश्च, आत्म-पराक्रम द्वारा चरण या चारित्र की दिशा में, व्रतमय जीवन-पथ पर अग्रसर होने की चेतना जागरित होती है, जो क्रमश: क्रियान्विति प्राप्त करती है, वही सम्यक् चारित्र
१ तत्त्वसार, पर्व-४४, ४५, पृष्ठ : ९४-९७.
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