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________________ उत्तरवती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण और विस्तार क सिद्ध की [ संकुचित वह न्याय त छोटे या में उछलता है, उसी प्रकार सिद्धों की गति है। अग्नि और धुआँ अपने स्वाभाविक परिणाम से जिस प्रकार ऊपर उठते हैं, सिद्धों की भी वैसे ही गत्ति होती है। सिद्धों की गति के अवरोध और स्थिति के संबंध में प्रश्न किया जाता है- सिद्ध आत्मा कहाँ प्रतिहत होते हैं, रुकते हैं ? वे कहाँ प्रतिस्थित होते हैं ? वे कहाँ शरीर छोड़कर, कहाँ जाकर सिद्धि प्राप्त करते है ? इन प्रश्नों का समाधान इस प्रकार है सिद्ध होने वाले जीव अलोक में प्रतिहत हो जाते हैं, रुक जाते हैं, वे अलोक में नहीं जा पाते। वे लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित होते हैं। यहाँ शरीर छोड़कर वहाँ जाकर सिद्धि पा लेते हैं। अलोक में धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय नहीं हैं। केवल आकाशास्तिकाय है। वहाँ सिद्ध प्रतिहत होते हैं। वे लोकाकाश में अप्रतिहत हैं। वे लोक के अग्रभाग- पंचास्तिकाय रूप लोक के सर्वोच्च स्थान में प्रतिष्ठत हैं। इसका यह तात्पर्य है कि वहाँ से सिद्ध फिर आते नहीं। अढाई द्वीप- समुद्रमय लोक में शरीर को सर्वथा छोड़कर वे लोक के अग्रभाग में अस्पृशद्-गति से जाकर सिद्ध हो जाते हैं, स्थिर हो जाते 5 जो पुरुष द्ध कहलाते हैं। कर डालने इषद्-प्राग्भारा नामक सिद्ध-भूमि से, जिसका दूसरा नाम सीता है, एक योजन दूर लोक का अंतभाग है। सिद्ध-भूमि सर्वार्थ-सिद्ध देवभूमि से बारह योजन दूर है।' द्वारा समग्र [ अंतररूप जाते हैं। रूपी जल सिद्धत्व-आराधना के संदर्भ में रत्नत्रय का निरूपण सुप्रसिद्ध दिगंबर आचार्य श्री देवसेन ने प्राकृत गाथाओं में तत्त्वसार नामक ग्रंथ की रचना की, जिसमें जैन सिद्धांतों का सार रूप में विवेचन है। तत्त्वसार पर आचार्य श्री सकलकीर्ति की संस्कृत में टीका है। आचार्य देवसेन ने तत्त्वसार में रत्नत्रय का विश्लेषण करते हुए लिखा है- मोक्ष या सिद्धत्व- प्राप्ति का मार्ग, सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र की पृष्ठभूमि पर अवस्थित ये आध्यात्मिक दष्टि से रत्न- सर्वाधिक मल्यवान कहे गए हैं। ज्ञान और आचार की विविध भूमिकाएं इनके आधार पर ही विकसित हुई हैं। वहाँ रत्नत्रय का स्वरूप बतलाते हुए कहा है, जो कोई योगी, साधक सचेतन और शुद्ध-भाव में स्थित आत्मा को ध्याता है, आत्मा का चिंतन करता है, वह इस लोक में निश्चित दृष्टि से दर्शन, ज्ञान, चारित्र कहा जाता है। सबकी पूर्व के ऊपर है, किंतु सेद्धों की की दिशा १. नमस्कार-नियुक्ति, गाथा-८८७-९९२ : नमस्कार-स्वाध्याय (प्राकृत-विभाग), पृष्ठ : १११-१५२. 250 MER SNETHER
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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