SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरवर्ती जैन ग्रन्थों में सिद्ध-पद का निरूपण रूप में प्रसृत गएं मागधी, ४. “सिद्धे निट्ठिए सयलयपओयणजाए एएसिमिति सिद्धाः ।' जिनके सब प्रकार के प्रयोजन सिद्ध- निश्चित, परिपूर्ण हो गए हैं, वे सिद्ध हैं। सिद्ध शब्द षिध् धातु से बना है। इस धातु का एक अर्थ गति है। सिद्ध मुक्तिरूपी नगर में चले गए हैं, जहाँ से वे कभी वापस नहीं लौटते। इस प्रकार धातु का यह अर्थ संगत है। सिध् धातु का दूसरा अर्थ निष्ठितता है। सिद्धों ने अपने सभी प्रयोजन निष्ठित- संपन्न, परिपूर्ण कर लिए हैं। उनके लिए कुछ करना अवशेष नहीं है। इसलिए वे सिद्ध हैं । इस धातु का तीसरा अभिप्राय शास्त्र और मांगल्य है। शास्त्र का तात्पर्य शासन या अनुशासन है। सिद्ध अनुशास्ता हैं तथा वे सर्वथा मंगलरूप हैं, अत एव वे सिद्ध हैं। ना दी, जो हे। आचार्य ने नैयायिक में रचा गया के रूप में से साहित्य कृत ग्रंथों । में संक्षेप आवश्यक-नियुक्ति में सिद्ध-पद आवश्यक-सूत्र पर आचार्य श्री भद्रबाहु द्वारा विरचित नियुक्ति के अंतर्गत नमस्कार महामंत्र की व्याख्या के संदर्भ में सिद्ध-पद का जो विवेचन हुआ है, इसका संक्षेप में सारांश यह है सिद्ध शब्द षिधु- साध् अथवा षिध्– इन धातुओं से बना है। जिन्होंने इन धातुओं द्वारा सूचित गुण पूर्ण रूप से प्राप्त कर लिए हैं, वे सिद्ध कहे गए हैं। उनमें नाम-सिद्ध, स्थापना-सिद्ध और द्रव्यसिद्ध आदि हैं। इस प्रसंग में सिद्धों के विविध भेदों का विस्तार से निरूपण किया गया है, जिनमें विद्या-सिद्ध, मंत्र-सिद्ध, योग-सिद्ध, कर्म-क्षय-सिद्ध आदि की विशेष व्याख्या है। इस विवेचन-क्रम में अनेक उदाहरण, दृष्टांत दिये गए हैं, जो उत्तरकालीन साहित्य में विविध प्रसंगों में प्राप्त होते हैं। नाम-सिद्ध, स्थापना-सिद्ध और द्रव्य-सिद्ध को समझने के लिये नाम, स्थापना, आदि निक्षेपों पर | यहाँ चिंतन करना आवश्यक है। - किसी पदार्थ या व्यक्ति का बोध कराने हेतु उसका भिन्न-भिन्न अवस्थाओं की अपेक्षा से नामकरण किया जाता है, उसे निक्षेप कहा जाता है। तत्त्वार्थ-सूत्र में निक्षेप के भेद बतलाते हुए लिखा है- 'नामस्थापना द्रव्यभावतस्तन्न्यास:।' [का यहाँ लिया है, १. त्रैलोक्य दीपक महामंत्राधिराज, पृष्ठ : १७ २. आवश्यक-नियुक्ति, गाथा-९२७-९८६ (व्याख्या), पृष्ठ : १३४-१५०. 246 Rok
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy