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________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार कापोत -लेश्या कहते है, के कथन कारण उसने प्रव्रज्या ग्रहण की। उसी दिन उसने एक रात्रि की महाप्रतिमा स्वीकार की और श्मशान में ध्यानस्थ हुआ। सोमिल नामक ब्राह्मण की कन्या के साथ गजसुकुमाल का विवाह निश्चित हुआ था परन्तु विवाह न करके गजसुकुमाल के दीक्षा लेने से सोमिल बड़ा क्रुद्ध था। प्रतिशोध की दुर्भावना से सोमिल ने ध्यान-लीन गजसुकुमाल के मस्तक पर मिट्टी की पाल बनाकर जलते अंगारें उसमें भरे। बड़ी विषम स्थिति थी। फूल से, सुकुमार गजसुकुमाल का मस्तक आग से उसी प्रकार जलने लगा, जिस प्रकार बर्तन में कोई पदार्थ उबलता हुआ तपता है। वेदना का पार नहीं था। परंतु गजसुकुमाल भेद-विज्ञान की स्थिति पा चुके थे। आत्मस्वरूप का स्मरण करते हुए, वह देह से अतीत रहा। उसने घोर परिषहों को आत्मकल्याण का निमित्त समझा। उसके परिणामों की धारा क्रमश: अत्यंत उज्ज्वल और विशुद्ध बनने लगी। उसका गुणस्थान-क्रम उन्नत से उन्नततर होता गया। वह अविलंब समस्त कर्मों का क्षय कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गया। यह एक ऐसा उदाहण है, जिससे सिद्ध होता है कि साधना की सफलता में कोई गणित-सिद्धांत लागू नहीं होता। इतने समय में यह सधे, उससे आगे कुछ और सधे, अंत में सफलता मिले । वहाँ तो जब भावनाओं में अत्यंत उत्कर्ष आ जाता है, तब वर्षों में होने वाला कार्य क्षणों में हो जाता है, पर | ऐसा तब होता है, जब दृष्टि अंतरात्म-भाव की ओर हो। अंतरात्म-भाव ही आगे चलकर परमात्म-भाव में परिणत हो जाता है। रते हुए र्शन के तेपात न्म लेने उन्होंने तिबद्ध वेदना, रते हैं, [ होती अर्जुनमाली अंतकृद्दशांग-सूत्र में अर्जुनमाली का एक प्रसंग है, जो भगवान् का समसामायिक था। राजगृह नगर के बाहर उसका पुष्पों का उद्यान था। उसकी पत्नी का नाम बंधुमति था । वह बहुत रूपवती और सुकुमार थी। अर्जुनमाली पुष्पों का व्यवसाय करता था। उसके उद्यान के पास ही मुद्गरपाणि नामक यक्ष का आयतन था। अर्जुनमाली अपनी कुल-परंपरा से उसकी पूजा करता था। आयतन में मुद्गरपाणि यक्ष की प्रतिमा थी। उसके हाथ में सहस्र-पल परिमाण भार-युक्त लोहे का एक मुद्गर था। आज के तोल के अनुसार वह लगभग सत्तावन किलो का था। अर्जुनमाली यक्ष की प्रतिदिन उत्तम फूलों से पूजा कर फिर काम में लगता था। एक दिन जब वह पत्नी के साथ फूल चुन रहा था तो नगर के छह उद्दण्ड व्यक्ति वहाँ आये। दुर्भावनापूर्वक अर्जुनमाली को बाँध दिया और उसकी पत्नी के साथ अनाचरण किया। अर्जुनमाली को बड़ा दुःख हुआ। वह सोचने लगा- यह प्राप्त ग्य के १. अंतकृतदशांग-सूत्र, वर्ग-३, सूत्र-२१-२३, पृष्ठ : ७६-७९. 198 S EX 42015 SAD MAHARA 323 SHA 22052
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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