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आगमों में सिद्धपद का विस्तार
सिद्धत्व प्राप्त करने में यह जो भवों का तारतम्य वर्णित हुआ है, उसका संबंध उन-उन जीवों द्वारा अपने-अपने कर्मों का उच्छेद या नाश की भिन्न-भिन्न अवधियों से 'जुड़ा हुआ है । आत्म-पराक्रम या पुरषार्थ सब में एक जैसा नहीं होता। अपने-अपने क्षयोपशम के अनुसार उस में तरतमता होती है । ही कर्म - प्रवाह के संवरण तथा निर्जरण का उपक्रम चलता है जो एक भव में सिद्धत्व प्राप्त तदनुरूप | करते हैं, वे आत्मबल के महाधनी होते हैं । इसलिए उनकी साधना और परिणामों की धारा बड़ी त्वरा के साथ उज्ज्वलता पाती जाती है। उनकी तुलना में उन जीवों पर जो तैंतीस भवों में सिद्धत्व प्राप्त करते हैं, विचार किया जाए तो यह प्रतीत होगा कि उन तैंतीस भवों में सिद्ध होने वालों का आत्म-पराक्रम एक भव में सिद्ध होन वालों के आत्म-पराक्रम से बहुत न्यून होता है।
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इन दोनों के मध्यवर्ती भिन्न-भिन्न भवों में मुक्त होने वालों के आत्म-पराक्रम में तुलनात्मक दृष्टि न्यूनता होती है।
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यह सारा उपक्रम आसव निरोध और तपश्चरण की प्रक्रिया पर निर्भर है।
| सिद्धत्व- पर्याय का प्रथम समय : गुण
सयोग केवलावस्था से जब जीव उत्कृष्टतम शुक्ल ध्यान द्वारा समस्त योगों का निरोधकर चतुर्दश | गुणस्थान को प्राप्त करता है, सिद्धत्व का लाभ करता है, तब सिद्धत्व पर्याय के प्रथम समय में इकतीस गुण निष्पन्न होते हैं । वे इस प्रकार है
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(१) क्षीण- आभिनिबोधिक ज्ञानावरण, (२) क्षीण - श्रुतज्ञानावरण, (३) क्षीण-अवधिज्ञानावरण, (४) क्षीण मनः पर्यवज्ञानावरण, (५) क्षीण केवलज्ञानावरण, (६) क्षीण चक्षुदर्शनावरण, (७) क्षीणअचक्षुदर्शनावरण (८) क्षीण - अवधिदर्शनावरण, (९) क्षीण - केवलदर्शनावरण, (१०) क्षीण-निद्रा, ( ११ ) क्षीण- निद्रानिद्रा, (१२) क्षीण - प्रचला, (१३) क्षीण प्रचलाप्रचला, (१४) क्षीण - स्त्यानर्द्धि, (१५) क्षीण - सातावेदनीय, (१६) क्षीण असातावेदवीय, (१७) क्षीण - दर्शनमोहनीय, (१८) क्षीण - चारित्रमोहनीय, (१९) क्षीण नरकायु, (२०) क्षीण तिर्यगायु, (२१) क्षीण मनुष्यायु, (२२) क्षीण देवायु, (२३) क्षीण उच्चगोत्र, (२४) क्षीण नीचगोत्र (२५) क्षीण-शुभनाम, (२६) क्षीण अशुभनाम, (२७) - क्षीण दानान्तराय, (२८) क्षीण लाभान्तराय (२९) क्षीण- भोगान्तराय (३०) क्षीण उपभोगान्तराय, और (३१) क्षीण - वीर्यान्तराय ।
गुण उन उन कर्मों के आवरणों के उच्छेद के परिणाम स्वरूप प्रकट होते हैं, जिन्होंने आत्मा के स्वातंय को रोक रखा था। जब वे कर्मावरण अपगत हो जाते हैं, तब सारा अवरोध रुकावटें मिट
१. समवायांग सूत्र, समवाय-३१, सूप- २०५.
सूत्र
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