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________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार इसी प्रकार वत्स विजय में स्थित दीर्घ वैताद्य पर्वत के उपर भी नौ-नौ कट बतलाये गये हैं। सवत्स, महावत्स, वत्सकावती, रम्य, रम्यक्, रमणीय तथा मुंगलावती विजयों में अवस्थित दीर्घ वैताद्य पर्वत के ऊपर नौ-नौ कूट ज्ञातव्य हैं। इसी तरह जंबूद्वीप के अंतर्गत मंदर पर्वत के विद्युत्प्रभ, वक्षस्कार पर्वत के ऊपरी भाग में नौ कूट वर्णित हए हैं। उपर्युक्त इन सभी में प्रथम कूट सिद्धायतन कूट है। इनके अतिरिक्त जबूद्वीप के अंतर्गत मंदर पर्वत के पद्मावती, दीर्घ वैताद्वय के ऊपर सुपक्ष्म, महापक्ष्म, पक्ष्मकावती, शंख, नलिन, कुमुद तथा सलिलावती में स्थित दीर्घ वैताह्य पर्वत के ऊपर तथा इसी प्रकार वन विजय में विद्यमान दीर्घ वैताढ्य के ऊपर सवप्र, महावप्र, वप्रकावती, वल्गु, सुवल्गु, गंधिल एवं गंधिलावती में अवस्थित दीर्घ वैताढ्य पर्वत के ऊपर, जंबूद्वीप के अंतर्गत मंदर पर्वत के ऊपर उत्तर दिशा में नीलवान, वर्षधर पर्वत के ऊपरी भाग पर जंबद्वीप में मंदर पर्वत के ऐरवत क्षेत्र के दीर्घ वैताद्वय के ऊपर नौ-नौ कूट हैं । इन सभी कूटों में पहला सिद्धायतन-कूट है।' समवायांग-सूत्र में मोक्ष का विवेचन समवायांग-सूत्र के 'एकपदावलीमूलक' पदार्थों के उल्लेख के अंतर्गत आत्मा-अनात्मा, दंड-अदंड, इत्यादि के पश्चात् एक बंध और एक मोक्ष के रूप में बंध के साथ मोक्ष का उल्लेख हुआ है। इस पदावली में इसी रूप में सारा वर्णन हुआ है। जैसे आत्मा और अनात्मा, दंड और अंदड, क्रिया और अक्रिया आदि एक दूसरे के विपरीत तत्त्व हैं, उसी प्रकार बंध और मोक्ष भी एक दूसरे के अननुकूल हैं। दोनों की दो धाराएँ हैं। बंध संसार से जुड़ता है। बंध का आशय आत्मा द्वारा अपने शुभ-अशुभ अध्यवसाय से कर्मों को बांधना है। | इस प्रकार आकृष्ट कर्म-कर्म-पद्गल आत्म-प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट हो जाते हैं। वही बंध है, जिससे आत्मा का स्वरूप उस बंध की प्रकृति आदि के अनुसार बद्ध या आवृत्त होता है, वही संसार है। वह संसार-बंध के सहारे आगे से आगे चलता रहता है। 'संसरतीति संसार:'- के अनुसार संसार का अर्थ आगे से आगे संसरण या गमन करते रहना है, जो विभिन्न योनियों में जन्म-मरण के रूप में प्रगट होता जाता है। जिस प्रकार कारागार में बंध किया हुआ बंदी परवश हो जाता है, दुःखित हो जाता है, वही | स्थिति कर्म-बद्ध आत्मा की होती है। _ संवर द्वारा कर्मानवों का निरोध होता है और निर्जरा द्वारा संचित कर्मों के बंध से आत्मा छूटती है। इस प्रकार कर्मों से छूटना मोक्ष कहा जाता है। संवर-निर्जरामूलक साधना की वह सफलता है, | सिद्धता है। १. स्थानांग-सूत्र, स्थान-९, सूत्र-४३-५८. 166 intonian
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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