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________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार आगम : आप्त-परंपरा 'आगम' जैन धर्म के सर्वाधिक प्रामाणिक शास्त्र हैं। आगम का अभिप्राय उस ज्ञान से है, जो अनादि काल से चला आ रहा है। तीर्थकर अपने-अपने समय में उसका उपदेश करते हैं। जिनके ज्ञान के समस्त आवरण मिट जाते हैं, वे सर्वज्ञ होते हैं। वर्तमान, भूत और भविष्य- तीनों को वे प्रत्यक्ष देखते हैं। उनका ज्ञान सर्वथा निर्मल, शुद्ध तथा अविसंवादी होता है। परस्पर वचनों में कोई विरोध नहीं होता। ऐसे ज्ञान के धनी आप्त पुरुष कहलाते हैं। तीर्थंकर आप्त पुरुष हैं। ___ आगमों के रूप में जो सूत्र हमें प्राप्त हैं, वे अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर द्वारा अर्थ रूप में उपदिष्ट तथा उनके प्रमुख शिष्यों-गणधरों द्वारा संग्रथित हैं। इस संबंध में प्रस्तुत शोधग्रंथ के प्रथम अध्याय में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। सिद्धों के संबंध में आगमों में उनके स्वरूप, संख्या, चरमता, अचरमता, काल, अवगाहन, स्थान, सुख आदि विविध पक्षों पर जो विवेचन हुआ है, उसे विश्लेषण एवं विमर्शपूर्वक इस अध्याय में उपस्थित करने का प्रयास रहेगा। जीवन का परम साध्य : मोक्ष जैन धर्म में जीवन का परमसाध्य मोक्ष या मुक्तावस्था है, जहाँ आत्मा के सभी बहिर्भाव विलुप्त हो जाते हैं, अंतरात्मभावपूर्वक वह परमात्मावस्था प्राप्त कर लेती है। वहाँ साधक की साधना सिद्धि प्राप्त कर लेती है। आत्मा, परमात्मा या सिद्ध भगवान् के रूप में परिणत हो जाती है, जो समस्त कर्मों के क्षय का परिणाम है। वहाँ सहज रूप में आत्मा के मूल गुण प्रकट हो जाते हैं। - “जिनके आठों कर्म क्षीण हो गए हों, जो सब प्रकार के दोषों से मुक्त हो गये हों, सब गुणों को | जिन्होंने प्राप्त कर लिया हों, वे सभी सन्त, सिद्ध भगवन्तों में समाविष्ट हैं।"२ "संसार में जो सुखी से सुखी जीव माने जाते हैं, उनमें मरणादि का भय व्याप्त रहता है। सिद्धत्व १. सचित्र णमोकार महामंत्र, परिशिष्ट-५, पृष्ठ : १८, १९. २. पंचपरमेष्ठी नमस्कार महामंत्र, याने जैन धर्मनु स्वरूप, पृष्ठ : ४१, 150
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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