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________________ सिध्दपद और णमोक्कार-आराधना र करने से यह ण तो न देता तुलना अक्षर प्रेरक यों में णमोक्कार मात्र अड़सठ अक्षरों का एक ऐसा परिपत्र या घोषणा पत्र है, जो अनंत काल से जीवन के परम सत्य का उद्घोष कर रहा है, और करता रहेगा। उद्घोष बहुत ही महत्त्वपूर्ण और अंत:स्फूर्तिप्रद है किंतु वह लाभप्रद तभी सिद्ध हो सकता है, जब रुचिपूर्वक, सावधानीपूर्वक, निष्ठापूर्वक उसे श्रवण कर विवेकपूर्वक स्वीकार किया जाय तथा अपने दैनंदिन जीवन में साकार किया जाय। णमोक्कारमय मंगल-सूत्रों का आत्मा के साथ संबंध साजन राग-द्वेष को अपना स्वरूप मानना, वीतराग-भाव और निर्विकल्प समाधि से वंचित रहना, आत्मा की बाह्य दशा है। उसे बहिरात्मदशा या बहिरात्मभाव कहा जाता है, इसका आशय शरीर एवं आत्मा को एक मानना, अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया तथा लोभ से युक्त होना एवं मिथ्यादृष्टि के कारण शारीरिक संबंधों को आत्मिक संबंध मानना है। इसमें स्वसंवेदनमूलक ज्ञान, स्वानुभवरूप सम्यकज्ञान नहीं रहता। बहिरात्मभाव युक्त व्यक्ति मंगल-वाक्यों के स्मरण और चिंतन में रूचि नहीं लेता। उसको णमोक्कार मंत्र जैसे पवित्र मंगल-सूत्र और वाक्यों में श्रद्धा नहीं होती। जब तक सम्यक् श्रद्धान-युक्त वत्ति नहीं होती, तब तक उन्नत आदर्शों को व्यक्ति अपने सामने नहीं रख सकता। जब कर्मों का क्षयोपशम होता है, तब नवकार मंत्र पर श्रद्धा उत्पन्न होती है। उसके चिंतन-मनन और स्मरण से प्राणी बहिरात्मावस्था से अंतरात्मा की ओर अग्रसर होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि जब तक व्यक्ति की परम मंगलमय महामंत्र में श्रद्धा जागरित नहीं होती तब तक वह बहिरात्मभाव में ही विद्यमान रहता है। विभावों या विकार-युक्त भावों को अपना स्वरूप समझकर वह दिन-रात व्याकुल बना रहता है। रके मंत्र यक क्या ता FEE देह और आत्मा को सर्वथा भिन्न या पृथक् मानना, उसमें निष्ठा रखना भेद-विज्ञान कहा जाता है। जो आत्मा भेद-विज्ञान पा लेती है, वह निर्विकल्प-समाधि में लीन हो जाती है। शरीर आदि पर-पदार्थों में उसकी ममत्त्व-बुद्धि नहीं रहती। चिदानंद-स्वरूप आत्मा को ही वह सब कुछ समझती है, उसका यह भाव अंतरात्म-भाव कहलाता है। णमोक्कार मंत्र : सुख का अनन्य हेतु णमोक्कार मंत्र के संबंध में जैन साहित्य में यह गाथा बहुत प्रसिद्ध है, संतजन प्रवचन में जिसका प्राय: उपदेश देते हैं ER 136
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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