________________
सिध्दपद और णमोक्कार-आराधना
इसको सुंदर और सुसज्जित बनाओ। इसकी सुंदरता धर्म के आचरण, तपश्चरण और संयताचरण से सिद्ध होती है। तभी तुम आध्यात्मिक वास्तुकला में निष्णात बनोगे। ईंट, गारा, चूना और पत्थरों से निर्मित भवन तुम्हारा कुछ भी कल्याण नहीं कर सकेंगे।
आत्मा इस देह रूपी निकटतम भवन का सौंदर्य तभी निखार पायेगा, जब तुम अध्यात्म-योग के | साँचे में अपने को ढ़ालते जाओगे।
दूसरी ललितकला मूर्तिकला है। इस देहरूपी मंदिर में आत्मदेव राजित हैं। उनकी अमूर्त प्रतिमा ही वह सौंदर्यमय आध्यात्मिक मूर्ति है, जिसकी आराधना और उपासना का णमोक्कार मंत्र संदेश देता है। आत्मदेव ही आराध्य हैं। इसलिए उसी दिव्य मूर्ति की शोभा, सज्जा वास्तव में श्रेयस् का मार्ग है।
उपनिषद् में श्रेयस और प्रेयस् का बड़ा सुंदर विवेचन है। श्रेयस् का साधन भिन्न है और प्रेयस का साधन उससे पृथक् है। वे दोनों भिन्न-भिन्न फल देनेवाले हैं। वे पुरूष को अपनी-अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। उन दोनों में से श्रेयस् के साधन को जो ग्रहण करता है, उसका कल्याण होता है तथा जो प्रेयस् के साधन को स्वीकार करता है, वह सत्यलाभ से वंचित हो जाता है। प्रेयस् का अर्थ भौतिक भोग हैं, जो सांसारिक जनों को बड़े प्रिय लगते हैं।
श्रेयस् का अभिप्राय आत्म-कल्याणकारी तत्त्व है, जो आध्यात्मिक उन्नति के साथ मानव के समक्ष श्रेयस् और प्रेयस् दोनों ही आते हैं। धीर-बुद्धिशील या विवेकी पुरुप इन दोनों के स्वरूप पर भलीभाँति विचार करता है। वह दोनों को पृथक्-पृथक् समझ लेता है। श्रेष्ठ बुद्धिशील पुरुष प्रेयस् की अपेक्षा श्रेयस् को ही कल्याण का साधन मानता है और उसे अपना लेता है।
बुद्धिहीन या विवेकशून्य मनुष्य भौतिक उपलब्धियों की इच्छा से प्रेयस् का, जो भोगों का साधन है, स्वीकार करता है।'
मूर्तिकला से चित्रकला सूक्ष्म है। जिस प्रकार ऊपर विवेचन किया जा चुका है, णमोक्कार मंत्र यह प्रेरणा प्रदान करता है कि जीव अपने में परमात्म-भाव का चित्रण करें, अंकन करें। परमात्मा के आध्यात्मिक स्वरूप के भाव-चित्र का आंतरिक चक्षुओं से अवलोकन करे । जैसे सुंदर, सजीव चित्र को देखकर मनुष्य उत्कृष्ट भावात्मक परिकल्पना में तन्मय हो जाता है, उसी प्रकार भगवान् के भाव-चित्र | में तन्मय होने से जीव अपने सत्य-स्वरूप की अनुभूति कर सकता है।
चित्रकला से संगीतकला सूक्ष्म है। चित्रकला में दीवार, कागज, रंग आदि का आधार अपेक्षित होता है, जिस पर चित्र अभिन्न रूप में संलग्न होता है। संगीतकला का आश्रय स्वर है, जो कंठ से
hri
P
r
.
.
१. कठोपनिषद्, अध्याय-१, वल्ली-२, श्लोक-१, २, पृष्ठ : ७७.
110