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________________ सिद्धपद और णमोक्कार-आराधना वस्था है। जब तक होती है। र के साथ में होता। दा अरूपी उसे अपनी अनुभूति में ढालना है। 'आराधितुं योग्य आराध्यम्'- जो आराधना करने योग्य है, उसे आराध्य कहा जाता है। आराधना का सूक्ष्म अर्थ- ध्येय, उपास्य या आराध्य के स्वरुप की अपने में अवतारणा करना है। आत्मा ही ध्येय, ध्याता और ध्यान है। तीनों का उसी में समावेश होता है। उसी प्रकार वही उपास्य, उपासक और उपासना है। वही आराध्य, आराधक और आराधना है। यह शुद्ध नयमूलक दष्टिकोण है, जो शुद्धोपयोग से सिद्ध होता है। णमोक्कार मंत्र साधक को शुद्धोपयोग की भूमिका में अवस्थित होने की प्रेरणा प्रदान करता है। सका गुण न-दर्शन ता हुआ, अष्टांगयोग : नवकार महामंत्र परिशीलन आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में योग का अत्यत महत्त्व है। योग चित्तवृत्तियों के निरोध का पथदर्शन देता है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, तथा समाधि- योग के | ये आठ अंग हैं।' । इनके अभ्यास और साधन द्वारा साधक अपने चित्त की वृत्तियों को निरुद्ध करता हुआ समाधि-अवस्था प्राप्त करता है, जो परम शांतिमय है। योग-साधना का यह एक ऐसा वैज्ञानिक मार्ग है, जिससे अनुप्राणित होकर विभिन्न-परंपराओं में साधना-पद्धतियों का विकास हुआ। | अष्टांग योग के संदर्भ में णमोक्कार मंत्र का गंभीरता से परिशीलन करने पर यह सिद्ध होता है कि इसके द्वारा जीवन का समाधिमय महान् साध्य सहजरूप में स्वायत्त हो जाता है। हरण या बता हुआ त्मिा को जानता। , उपास्य १. यम योग का प्रारभ यम के साथ हो जाता है। सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह योग में ये पाँच यम स्वीकार किये गए हैं। जब यमों का जाति ,देश, काल, समय के अपवाद, विकल्प या छूट के बिना पालन किया जाता है, तब वे व्रत कहलाते हैं। जाति का तात्पर्य गो आदि पशु अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि है। जब व्यक्ति इन जातियों की | हिंसा आदि का विकल्प नहीं रखता, तब वह जाति निरपेक्ष यम महाव्रत का रुप ले लेता है। उसी प्रकार जब हरिद्वार, मथुरा, काशी आदि स्थानों का विकल्प नहीं रखा जाता, तब वह यम देश विषयक यान का हा जाता अथवा चना है, १. योग-सूत्र, समाधिपाद, सूत्र-२. २. (क) योग-सूत्र, साधनपाद, सूत्र-२९. ३. जैन धर्म की मौलिक उद्भावनाएँ, पृष्ठ : १४० (ख) मंत्राधिराज भाग-२, पृष्ठ : ३२९ ४. योग-सूत्र, साधनपाद, सूत्र-३१. 94 स
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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