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________________ सिद्धपद और णमोक्कार-आराधना त्मिक यि रूप इज है। में भी य आम अर्थात् ओं से न होने - तथा पर्याय क नय पकहा भविष्य काल में वर्तमान काल का या भूतकाल का संकल्प करना 'भावि नैगम' है। जैसे राजकुमार को राजा कहना अर्थात् भविष्य काल में होने वाले राजा का वर्तमान में संकल्प करना और भूतकाल में जो अरिहंत हुए हैं उनको सिद्ध कहना, यह भूतकाल का भविष्य में संकल्प है। कोई कार्य प्रारंभ किया हो और वह पूर्ण नहीं हुआ हो, उससे पूर्व पूर्ण कहना यह 'वर्तमान नैगम है। जैसे रसोई के प्रारंभ में ही कहना कि आज हलवा बनाया है। निगम शब्द की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से की जाती हैं :“निगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते इति निगमा:, लौकिका अर्थाः। तेषु निगमेषु भवो योऽध्यवसाय: ज्ञानाख्य: स नैगमः। यथा लोको व्यवहरति तथानेन व्यवहर्तव्यम् । लोकश्चोपदिष्टैः प्रकारैः समस्तैर्व्यवहरति ।” जो जाने जाते हैं या पहचाने जाते हैं उन्हें निगम कहा जाता है। अर्थात् लौकिक पदार्थ निगम शब्द द्वारा अभिहित होते हैं। उन पदार्थों के संबंध में ज्ञान रूप अध्यवसाय नैगम है। लोक जिस | प्रकार व्यवहार करते हैं, उसी रीति से व्यवहार करना नैगम नय का कार्य है। लोगों का व्यवहार या उपदेश ज्ञानानुसार सब प्रकार का होता है, वैसे नैगम का व्यवहार भी सब प्रकार का होता है। “निगमेषु येऽभिहिता: शब्दा: तेषामर्थ: शब्दार्थ परिज्ञानं च देशसमग्र ग्राही नैगम: ।" निगमों, जनपदों, देशों में जो प्रचलित शब्द हैं, वे नैगम कहे जाते हैं, अर्थात् भिन्न-भिन्न देशों में प्रयोग में लिये जाते 'घट' आदि शब्द नैगम है। घट आदि शब्दों के अर्थों का ज्ञान अथवा जल धारण करने का सामर्थ्य रूप अर्थ का घट वाचक है, ऐसे ज्ञान को 'नैगम नय' कहते है। २. संग्रह नय एक शब्द द्वारा अनेक पदार्थों को ग्रहण करना 'संग्रह नय' है। जैसे जीव शब्द को कहने से सब प्रकार के बस-स्थावर जीवों का ग्रहण हो जाता है। संग्रह नय के दो प्रकार हैं- 'पर संग्रह' और 'अपर संग्रह। पर संग्रह को सामान्य और अपर संग्रह को विशेष कहा जाता है। सब द्रव्यों को ग्रहण करने वाला सामान्य संग्रह नय' है, जैसे- द्रव्य शब्द में जीव-अजीव आदि सब का ग्रहण हो जाता है। थोड़े द्रव्यों को ग्रहण करने वाला 'विशेष संग्रह नय कहा जाता है, जैसे जीव शब्द के कहने से सब प्रकार के जीवों का संग्रह हो जाता है, किंतु अजीव द्रव्य का उसमें संग्रह नहीं होता। इसलिये उसे 'संग्रह नय' कहा जाता है। मान्य दो भेद 'शब्द दद्वारा गम। गवान् हजार ते है। PATRA
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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