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मैं ही खुद सम्पूर्ण, ज्ञान स्वरूप हूं और मुझ अंतर से बहता शांत/आनंदमय वीतराग का ही निरंतर प्रवाह है मैं पूर्ण अकर्ता करनी/भरनी को अवश्य टाल,त्रिकाल स्वरूप में ही मेरा है रूप, जन्म मरण मुझमें कहां?
इसी प्रकार से निज स्वरूप को जान, पहचान कर मैं मेरी पूर्णता और अकर्ता स्वभाव स्वीकार कर के जैसी करनी वैसी भरनी को अवश्य ही टाल सकूँगा जन्ममरण के दुखों से भी जरुर मुक्त हो सकूँगा.
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