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गुरुदेव
मैंने गुरुदेव को इतना ही जाना जितना स्वयं के ज्ञान को ही जान पाया मैंने गुरुदेव को इतना ही जाना जितने मेरे हठाग्रहों, मताग्रहों को छोड़ पाया मैंने गुरुदेव को इतना ही जाना जितनी मेरे ज्ञान में अशुद्धि दूर कर पाया.
शुद्ध स्वरूप नयातित है, तो उसमें नय कैसे और क्यों लगें शुद्ध स्वरूप नयाधीन नहीं मेरे गुरुदेव भी पूर्ण स्वतंत्र ही हैं मेरे ज्ञान का विकास, शुद्धि में वृद्धि कैसे हो, समझाने वाले गुरुदेव ही हैं.
मैं यदि शरीर कर्मों में अटका तो गुरुदेव को नहीं जाना मैं यदि मेरी ही तत् समय की योग्यता में अटका तो गुरुदेव को न जाना निमित्तों में अटका तो मेरे सर्वोत्कृष्ट निमित्त गुरुदेव को न जान पाया.
मैं मेरे अकर्ता के मर्म न समझा तो गुरुदेव को बिलकुल भी न समझ पाया मैं स्वयं की स्वतंत्रता, मैं मुझ से ही, मुझ में ही, परिपूर्ण को न समझा तो फिर मैं कैसे समझ ही पाऊंगुरुदेव की सिंह जैसी निडर न रुके ऐसी गर्जना.
मुझ जैसे जीव को भी सच्चा व्यवहार और निश्चय समझा सकाने वाले मेरी निधियों को समझा, मेरा बाहर भटकना, कहीं भी सुख की भीख मांगना बंद करा कर अंतर में ठहरने का उपाय, मार्ग, ज्ञान, सूझ, गुरुदेव ने ही दी है.