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पूर्ण सत
कही अखंडित ही पूर्ण सत हूं फिर क्यों यह खंड खंड ज्ञान ?
यह खंडित ज्ञान मेरा ज्ञान नहीं, मैं एक ही अखंडित ही पूर्ण सत हूं फिर क्यों यह संकल्प विकल्प ?
यह मन बुद्धि के सारे विकल्प मेरे नहीं, मैं एक ही निर्विकल्प ही पूर्ण सत हूं फिर क्यों यह शुभाशुभ भाव ?
में होते लगते शुभाशुभ भाव मेरे ही नहीं, मैं एक ही वीतराग ही पूर्ण सत हूं फिर क्यों यह सुखाभास और दुःख ?
यह सुख जिसके पीछे दुःख मेरा ही नहीं, मैं एक ही अबाध सुख ही पूर्ण सत हूं फिर क्यों यह आकुलता व्याकुलता ?
यह आकुलता व्याकुलता मेरी ही नहीं, मैं एक ही निराकुल ही पूर्ण सत हूं
मैं अखंड, अभेद एक ज्ञान स्वरूप
मैं निर्विकल्प, नयातीत एक ज्ञान स्वरूप
मैं शांति, आनंदमय एक ज्ञान स्वरूप
मैं
शुद्ध उपयोगमय एक ज्ञान स्वरूप
मैं चैतन्य, उमड़ता एक ज्ञान स्वरूप
यह मुझ
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