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क्षमावाणी
मेरा धर्म मुझ अंतर में है और मैं हूं आत्म स्वरूप इसीलिये पहली और सबसे उत्तम क्षमा है स्वयं से मैंने मुझे ही स्वरूप में न मान न जान जो इस संसार में अनंत स्वरूप हैं जाने, यही बड़ा हुआ पाप और मैं क्षमा मांग, मुझ आत्म स्वरूप को ही मेरा जानूं मानूं.
मेरा धर्म मुझ अंतर में है और मैं हूं आत्म-स्वरूप अब जब मैंने माना जाना है, स्वयं को आत्म-स्वरूप तब मैं सभी सहयोगी जीवों से जो भी कहा सुना उन सभी से भी क्षमा चाहता हूं, सभी हैं सहयोगी मेरे मैंने ही मान लिया, यही तो हुई बड़ी से बड़ी मेरी भूल.
मैं अब क्षमा मांग, मुझको जानूं मानूं आत्म स्वरूप ही इस सृष्टि का है कण कण स्वतंत्र, मैंने ही सदैव मेरा-तेरा कर, किया अन्याय अनंत पदार्थों से, मैंने अनंत जीवों और अनंतानंत पुद्गलों को बना मेरा कर्म, बन बैठा कर्ता अब मैं क्षमा मांग, रागों से न जुड़, भावता हूं वीतराग को.
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