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मैं तो त्रिकाल, पूर्ण, शुद्ध, ज्ञानानंद, सुख शांतिमय ही हूं मैं परिपूर्ण, कुछ भी कैसे और क्यों करूं? जानना भी तो मेरा कर्म और मैं इसका कर्ता भी कैसे बनं.
मैं तो परिपूर्ण चैतन्यमात्र, ज्ञानमात्र, तत्व हूं न जगत का जाननहार स्वयं में ही ज्ञानानंद ही हन कर्ता-कर्म क्या है? मूर्ख यह तो मूर्खता ही है और क्या है.
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"प्रथम भूमिका में शास्त्र श्रवण पठन मनन आदि सब होता है, परन्तु अंतर में उस शुभ भाव से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिये. इस कार्य के साथ ही ऐसा खटका रहना चाहिये कि यह सब है किन्तु मार्ग तो कोई अलग ही है. शुभाशुभभाव से रहित मार्ग भीतर है - ऐसा खटका तो साथ ही लगा रहना चाहिये." बहेनश्री के वचनामृत-२५
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