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आस
साल में हैं ऋतुयें चार, सभी स्वयं स्वयं में पार कुदरत अति सुंदर है, सदा बदलती मोहक है फिर भी मानव न हो सका सुखी कभी भी इस कुदरत में, क्योंकि ये तो सदा ही जगाती आस.
ग्रीष्म में, ठंडी की आस, ठंड में है ग्रीष्म की, पतझड़ में हरियाली की आस और सावन तो उमड़ जगाये पूर्णता की आस और जगाये प्यास, प्यासा ढूंढ़े सदा को रहे आकुल व्याकुल और दुखी.
जीव की गतियां चार, देव, मानव, त्रियंच, नारकी चारों ही गतियों में जीव रहता प्यासा, भटकता, जब जान ले पहचान ले स्वयं को तो, तकता जीव गति पंचमी को, जो है स्वयं में ही सुखमय पूर्ण.
अब तो यह जीव, हुआ अलग कुदरत से और हुआ अलग इन पुद्गल के संयोगों वाली गतियों चार से, स्वतंत्र, एक, अभेद, अखंड, सुखशांतिमय, अविनाशी अनुपम, अलौकिक, परिपूर्ण, न है अब कोई आस.
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