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स्वरूप मुझ में गुप्त नही, मैं ही स्वरूप में गुप्त हूं मुझमें अनंत गुण ज्ञान-दर्शन-चारित्र संग एकरूप हैं अनंत अनंत रह कर ही एक दूजे में एक रस रूप हैं मैं ऐसा एक चमत्कारी, प्रकाशमान उद्योतमान हूं.
स्वरूप मुझ में गुप्त नही, मैं ही स्वरूप में गुप्त हूं बाहर देखू या देखू मैं अंतर, जब तक मैं देखू एक नहीं मुझ रागी को शुभाशुभ भाव हो ही जाता है, होता है मेरा अंतर ही, एक रूप, अखंड, अचल, त्रिकाल है.
स्वरूप मुझ में गुप्त नही, मैं ही स्वरूप में गुप्त हूं मेरे एक रूप की प्रतीति, अनुभूति, ही मेरा धर्म है इस निज रूप में टिक सकना, जमा रहना, एकाग्र रहना ही तो मेरा वीर्य है, सुख भरा चारित्र भी तो है.
स्वरूप मुझ में गुप्त नही, मैं ही स्वरूप में गुप्त हूं मेरे बाहर तो मुझ में ही जैसे मेरे ही अनंत रूप हों ऐसा दिखाई देता है, लेकिन यही तो जूठा है, सच नहीं एक ही सत है, वीतराग है, सिद्ध है, शाश्वत त्रिकाल है.
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