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स्वरूप मुझ में गुप्त नही, मैं ही स्वरूप में गुप्त हूं अनंत को न देखता स्वरूप में लीन होते होते ही मैं पूर्ण तरह स्वरूप में लीन हो ही जाता हूं, तभी तो मेरी पर्याय भी एक शुद्ध भाव में टिक ही जाती है.
स्वरूप मुझ में गुप्त नही, मैं ही स्वरूप में गुप्त हूं पर्याय है, क्षणिक ही है, अभी शुभाशुभ रूप हो रही है लेकिन मैं तो एक शुद्ध स्वरूप ही हूं और स्वरूप में ही एकाग्र, लीन, निमग्न रह सकने वाला वीर्यवान ही हं.
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"ज्ञान वैराग्यरूपी पानी अंतर में सींचने से अमृत मिलेगा, तेरे सुख का फव्वारा छूटेगा; राग सींचने से दु:ख मिलेगा. इसलिये ज्ञान-वैराग्यरूपी जल का सिंचन करके मुक्ति सुखरूपी अमृत प्राप्त कर" बहेनश्री के वचनामृत-१६
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