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स्वरूप मुझ में गुप्त
स्वरूप मुझ में गुप्त नहीं, मैं ही स्वरूप में गुप्त हूं इसीलिये बाहरी कोई भी क्रिया मैं कर सकता नहीं शरीर की भी कोई क्रिया, बोलना, चलना, खाना-पीना विचारना, अनुमान लगाना, शेखचिल्लियां कर सकता नहीं.
स्वरूप मुझ में गुप्त नहीं, मैं ही स्वरूप में गुप्त हूं मैं मेरा घर हूँ, ठहरनेका स्थान मैं ही त्रिकाल हूं मुझमें ही पूर्ण, अखंड, शाश्वत, एकरूप मेरा घर है निज स्वरूप में ही ठहर, रमणता मैं कर सकता हूं.
स्वरूप मुझ में गुप्त नही, मैं ही स्वरूप में गुप्त हूं मेरा घर अखंडित है उसमें मलिनता आती ही नहीं फिर मलिनता दूर हो, शुद्धि आ जाए भाव भी नहीं इन शुभाशुभ भावों में छुपा नहीं, छिप सकता नहीं.
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स्वरूप मुझ में गुप्त नही, मैं ही स्वरूप में गुप्त हूं मैं शरीर, शरीर के संबंधों से तो भिन्न ही हूं शुभाशुभ भावों से भी पूर्णतया भिन्न ही हूं शुद्ध ज्ञायक शुभाशुभ कर ही नहीं सकता कभी.
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