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मेरी भक्ति
भक्ति किसको कहना है, भक्ति किससे करना है हनुमान ने की भक्ति राम से, एकलव्य ने द्रोणाचार्य से शिष्य गुरु से करता भक्ति, भगत करता भगवान से भगत को क्या है पाना, कर यह अटूट भक्ति से.
जो दर्शन बताता है मुझ आत्मा में ही मेरा परमात्मा तीर्थंकरों ने, सभी ने, अनादि से है पाया, स्वयं में ही स्वयं का परमात्मा, वही पाया पंचपरमेष्ठियों ने, तो फिर कैसे मैं कर सकू भक्ति किसी दूजे जीव से.
सहजात्म स्वरूप ही जहां है मेरा परमगुरु तो फिर मैं भी बनी भक्त मेरे ही निज शुद्ध परमगुरु की मेरा निज स्वरूप, ध्रुव, नित्य परम स्वभाव मुझ में और मेरी ही यह पलटती वर्तमान अवस्था ही है भक्ति.
मैं भक्ति करूं भक्ति निज प्रभु परमात्व स्वरूप की वर्तमान के सारे संयोगों, परिस्थितियों को कर दी हैं कुर्बान मेरे ध्रुव स्वरूप के सामने, बन गई मैं भगत पूरी तरह, सदैव के लिये, मेरे निज प्रभु में ही समाने.
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