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मान्यतायें
मान्यतायें, मान्यतायें कोई कहे पुरानी संस्कृति अच्छी तो कोई कहे नई प्रगति, क्या दोनों सही हो सकते हैं? कोई कहे मीठा अच्छा तो कोई कहे नमकीन और तीखा और कोई कहे, जैसा समय, क्या सभी गलत हो सकते हैं?
कोई कहे सभी चीजों को जतन से सम्हालो और कोई कहे सम्हालने से तो सभी चीजें सड़ें, क्या दोनों सही हो सकते हैं? कोई कहे काम तो प्यार और धीरज से ही होता है, और कोई कहे धीरज रख कर ही बैठे रहोगे तो काम हो ही कैसे?
काम होने के लिये तो प्यार और धीरज को शीघ्रता और कर्तापने से मिलाना पड़ता है. इच्छा बगैर संशोधन कैसा? जैसी मान्यता वैसा ही आदमी बन बैठता है स्वयं वैसा ही पुरुषार्थ भी करता है. अमीर भी गरीबों सा जीवन जी लेता है.
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