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निज स्वरूप
मेरा निज स्वरूप जीवित है क्या ? मुझे मेरे स्वरूप का अनुभव है ? तो फिर कैसे मैं हूं इस शरीर से भिन्न, जब मुझे तो दिन-रात इस शरीर का भास है, अनुभव है, मेरा निज का तो जैसे भास ही नहीं
मैं तो ज्ञानानंद, जाननहार ही हूं, फिर चाहे जो भी जानने में आये शरीर, भूकंप, क्रोध, शांतभाव अथवा तीव्र और मंद कषाय मैं नहीं, मैं तो इस ज्ञान से भिन्न स्थिर, स्वच्छ, त्रिकाल, एकरूप ज्ञायक ही हूं
ज्ञानी, ज्ञायक ही जाननहार हूं, मुझ ज्ञान में तो ज्ञान ही है मैं हूं, पूर्ण हूं, त्रिकाल हूं और जो भी हर समय जानना हो रहा है तीव्र - मंद, शांत - अशांत, मुझसे भिन्न ही हैं, पृथक् ही हैं, मैं नहीं
इन्द्रिय ज्ञान के अनंत विषय हैं, मन बुद्धि के भी अनंत विकल्प हैं मेरा ज्ञान निर्विषय, अतीन्द्रिय और निर्विकल्प, स्वयं में ही पूर्ण है अभेद, अखंड, वज्र, त्रिकाल, एकरूप, स्वच्छ, स्वतंत्र, ज्ञायक ही है
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