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मुझमें भी जो भी है अपूर्णता उसे मैं ही तो हूं सुधारता, यही है खूबी जीव द्रव्य की,मैं ही तो करता अनंत पुरुषार्थ तभी स्वभाव ही में टिक जाता हूं.
यही तो मेरे पंच परमेष्ठियों ने है मुझे सिखाया कर इतना पुरुषार्थ की तू देख सके तेरा पूर्ण द्रव्य ही निज स्वरूप का ही शरण,बन सके तू स्वयं पूर्ण ही.
मैं भी हूं जीव द्रव्य, टिका मुझ स्वरूप में ही परिणमता हूं अवश्य मैं, सभी गतियों में ही मुझ स्वयं को ही भूलकर, अब जाना, जागा हूं.
अब तो मैंने जान लिया मुझ पूर्ण द्रव्य स्वरूप ही अब परिणमूंगा मुझ परम द्रव्य ज्ञानानंद जैसा ही द्रव्य दृष्टि से ही मैं पाता,मुझ पूर्ण सिद्ध स्वरूप ही
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बहेनश्री का "स्वानुभूतिदर्शन" प्रश्न - ७७ : अमुक अपेक्षा द्रव्य से पर्याय की भिन्नता बतलाते हैं इसलिए समझने में उलझन लगती है
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