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मैं तो पुरुषार्थ ही करती हूं, दिन रात ही करती हूं विचार मेरे भाव मेरे, अनेकान्त में खो जायें तो फिर सम्यक एकांत को ही ढूंढ निकालती हूं मैं तो पुरुषार्थ ही करती हूं, दिन रात ही करती हूं
मैंने जो पाया मुझमें है अमूल्य वो मुझ को ही उसको पकडूं भी कैसे मेरा ही तो है वह पूरा मेरे ही चैतन्य का रसपान हर जगह करती हूं भटकी भी मैं, संवरी भी मैं, सजी भी तो मैं ही हं
मैं तो पुरुषार्थ ही करती हूं, दिन रात ही करती हूं विचार मेरे भाव मेरे, अनेकान्त में खो जायें तो फिर सम्यक एकांत को ही ढूंढ निकालती हूं मैं तो पुरुषार्थ ही करती हूं, दिन रात ही करती हूं