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वेदन
मनुष्य को विचार आते हैं, भाव आते हैं, वेदन होता है यह सब ही वर्तमान की पर्याय में ही तो होता है चाहे वेदन पुरानी यादों का होवे, अथवा भविष्य के विचारों का अथवा वर्तमान की परिस्थिति का
वेदन शरीर का होवे, शरीर के संबंधों का हो तो वे सारे पदार्थ तो जैसे हैं वैसे ही रहते हैं. स्वयं के गुणों में ही रहते हैं. शरीर बचपन से बूढ़ा ही होता है भले हम उसके बारे में हमेशा जवानी ही विचारें
शरीर जड़ है, तो सड़ता गलता ही है, भले हम उसे सुन्दर बना कर कितना भी टिकाएं. आखिर तो श्मशान ही जाता है. इसी तरह चैतन्य सदैव अविनाशी, चिदानंदी, वीर्यवान, शांतिमय ही है
वर्तमान में हमारी दृष्टि जिस और होती है वही अनुभव, वेदन हम कर ही लेते हैं. शरीर और पर पदार्थों की ओर दृष्टि है, तो वेदन भी क्षणिक सुख अथवा आकुलता-व्याकुलता और दुख का ही है
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