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अब बच्चा जवान, दुनिया देख परख घर आने को तैयार हो गया है. माँ बाप उसके लिये घर बार सजा उसके स्वागत की तैयारी में हैं. उन्हें लगता है बेटा घर आयेगा, घर में तो जैसे जान आ जाएगी जिनवाणी माँ भी कहती है भव्य जीव अब तू तेरे स्व को जानने पहचानने तैयार है. तू इस संसार से भिन्न ऐसा जीव तत्व है. जड़ शरीर नहीं चैतन्यमय है, घर परिवार से बंधा नहीं स्वतंत्र है
तू तो तेरे प्रभु जैसा ही प्रकाशमान, चिदानंदी, अजर, अमर, अडोल, निर्भय, इस संसार से परे इस संसार का ज्ञानी, ज्ञानस्वरूप ज्ञायक ही है।
जिनवाणी माँ उसे स्व, निज का घर, निज का पद, निज की महानता बताती है, समझाती है अनुभव कराती है. और भव्य जीव प्रस्थान करता है. इस संसार से परे सिद्धत्व की ओर प्रस्थान करता है. खुद के मुक्त होने के मार्ग पर मोक्ष के मार्ग पर, इस अविनाशी जीव में ही तन्मय होने अविनाशी आनंद और
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सम्पूर्ण ज्ञान की तरफ ही जाता है
देखो इसी तरह भव्य जीव खुदके विनाशी नहीं अविनाशी घर जाता है
वो तो घर बार और संसार में नहीं संसार से परे निज घर जाता है
शुभ अशुभ भावों से भी भिन्न शुद्ध भावों में ही तन्मय हो जाता है स्वयं के आत्मतत्त्व में लीन, ज्ञानमय, आनंदमय, प्रभुमय हो जाता है।
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