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पुरुषार्थ
पुरुषार्थ किसे कहें? कैसे करें? क्या करें? कितने प्रश्न उठते हैं वो भी इस चंचल मन में और मिथ्यात्वी बुद्धि में. गुरुवाणी तो मिली है लेकिन सामने गुरु नहीं जिससे पूछ सकें, साथ समागम कर सकें, जिसे अपना गुरु कह सकें तीर्थंकरों की आदि से आ रही ये परम्परा और साथ में जिनवाणी, वैराग्य की वाणी
आत्मधर्म की वाणी, इसे पढ़ते आ रहे, समझते आ रहे, इसीका समागम करते आ रहे "मैं आत्मा हूं", इस शरीर से अलग, मन बुद्धि से परे, एक तत्व हूं इसको मानना, जानना, इसी में विश्वास, श्रद्धा द्रढ करना ही तो धर्म है इसमें समायें सारी मान्यतायें, लगता है सारे प्रश्नों के उत्तर
मैं आत्मा हूं और सारे जीव भी मेरी ही तरह आत्मायें हैं इसीसे तो अहिंसा, अपरिग्रह,
और प्रकृति के प्रति सम्मान है, इसीमें पूरा वैराग्य, अपार करुणा और असीम प्यार है इस शरीर में रहना है और अशरीरी जो साथ साथ है उसे जानना है इसीलिए तो पुरुषार्थ करना है और इसीको पुरुषार्थ कहते हैं
सारे अजीव को अजीव की तरह ही जानना है, मानना है, पहचानना है जीव के गुणों को भी जानना है, उनका अनुभव भी करना है इन्हीं इन्द्रियों से, इस मन बुद्धि से, और धीरे धीरे सारे राग द्वेष मेरे नहीं, मेरे हो सकते नहीं, उनका भी अनुभव करना है.