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पर मुझ ज्ञानानंद में जणा अवश्य जाता है, यह तो मेरे ही ज्ञान की शुद्धता जणा जाये इसलिये पर मेरा तो हो नहीं जाता, हो नहीं सकता संयोग का मतलब ही तो पृथक् है न! पृथक् था इसलिये ही संयोग कहलाया यह संसार जीव-अजीव का संयोग ही है, वास्तव में सदैव पृथक् ही खुद खुद में परिपूर्ण द्रव्य हैं. जैन दर्शन का सत कहो, कुदरत का भी सत है यही हमारे पंच परमेष्ठियों की अनुपम देन है, मैं पूर्ण ज्ञानानंद, सुख शांतिमय हूं
यह अनादि का दर्शन ही ऐसे पूर्ण सत को इतनी स्पष्टता से, गहराई से समझा कर मानव को ही भगवान बनाता है, मानव तेरा सच्चा स्वरूप ही सिद्धरूप ही है. क्यों तू इन क्षणिक संयोगों को अपना मान, जान इस संसार में ही भटक रहा है. अब तो तुझे ज्ञान मिला है, जाग, उठ खड़ा हो स्वयं को संयोगों से पृथक् जान कर एक बार विश्वास से कह भी दे मैं पर में न देखू, पर को न सुनूं,पर से न बोलूं, मैं पूर्ण ज्ञानानंद, सुख शांतिमय हूं