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एक बार मान तो
इस राग और पुण्य के विकल्प में भगवान सारा द्रव्य पड़ा है. एक समय की पर्याय, व्यक्त दशा, उसके उपर मेरी रुचि है. तो द्रव्य दिखता नहीं, द्रव्य तो कभी भी छुपा ही नहीं, तो फिर व्यक्त कैसे होवे. हमेशा ही मक्त ज्ञानानंद ज्ञायक व्यक्तही है.
द्रव्य के अस्तित्व को एक बार मान तो
मैं तो हमेशा मुक्त ही हूं, तो फिर ये सारे बंधन क्या? यह बंध मन-वचन-काया, कर्मो का योग है, जो बदलता ही रहता है. राग-द्वेषभावों से संयोग वियोग हैं, वो भी बदलते ही तो रहते हैं. तू तो शुद्ध स्वरूप इन संयोगों का ज्ञायक ही है.
कर्म व्यक्त भी हैं, एवं सत्ता रूप भी हैं. अब मैने मेरा शुद्ध स्वरूप माना है, इसीलिए मैं, इन कर्मों से जुड़ता नहीं. एक बार मैंने मुझको इन कर्मों से भिन्न माना तो फिर मैं कैसे तो इन कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता बन भी सकूँ मैं ज्ञायक ही हूं.
कर्म इष्ट हों तो वे सुख नहीं, सभी ही कर्मों के उदय में, शुभाशुभ भावों में, पुण्य-पाप में, दु:ख का ही तो वेदन है, सभी में बंध ही है. मैं तो पूर्ण रूप से मुक्त, सिर्फ ज्ञान मात्र, स्वतंत्र, स्वावलंबी चिदानंदी, अविनाशी, अखंड, अभेद, सुख शांतिमय ज्ञायक ही हूं.
जीव तू सदैव कर्मों से भिन्न ही है, एक बार मान तो
मेरा प्रभु ज्ञायक, पारिणामिक भाव, अचल, अडोल, अनुपम भी सत्ता रूप ही है, वो ही तो मैं हूं, वर्तमान ज्ञान की पर्याय में जो पर्याय मेरे ज्ञायक की ही है, स्वयं को ही तो जानता हूं स्वयं ही अनंत गुणों से भरपूर सुख शांतिमय मैं ज्ञायक ही हूं.
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