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प्रेम
जैन दर्शन प्रेम का दर्शन है, गुरू शिष्य से पूछते हैं
तूने कभी भी किससे, खुद से भी अधिक, ज्यादा प्यार किया है ?
शिष्य कहता है मैं किसीको भी बताता नहीं, पर मैंने मेरी भेंस से प्रेम किया है
तो गुरू कहते हैं, बस तो फिर सब ठीक है,
तू तेरे आत्म तत्व को भी पा सकता है. तू जैन, विजयी बन सकता है बस तुझे प्रेम अक्षर का सिर्फ ज्ञान ही नहीं, क्रिया ही नहीं
उसका अंतरंग में अनुभव है, तूने प्रेम किया है
तेरा प्रेम सिर्फ ज्ञान, क्रिया और वासनाओं से घिरा है
सच्चा प्रेम अंधा है, अंतर में, स्वच्छ, शुद्ध है, अपेक्षाओं के बगैर, स्वयं में ही परिपूर्ण है
तोस तू तो तुझ में ही बिराजमान ऐसे आत्मतत्त्व से प्रेम कर ले यहां आनंद ही आनंद है देह की अपेक्षा छोड़, देह में तो दुख ही दुख है अनित्य है, रोग है, राग है, द्वेष है, कषायों से भरपूर है
ते प्रेम को तू गुरूओं का आकार दे, तीर्थंकरों की मूर्तियों का आकार दे
बस उनका सच्चा प्रेमी बन वहां तर्क-वितर्क नहीं, कहां, कैसे, क्यों भी नहीं मैं और तू भी नहीं, बस प्रेम ही है न्यारा
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