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पूज्य श्री गुरुदेव का दिया पहला रत्न
एक द्रव्य अन्य द्रव्य का कुछ भी नहीं कर सकता शरीर है जड़ और मेरा चैतन्य राजा तो इससे अलग शरीर मेरे चैतन्य राजा का न कुछ कर सके और न ही मैं चैतन्य इस शरीर का, कुछ भी बना सकू या बिगाड़
मैं चैतन्य ही तो ज्ञान स्वरूप और यह सब जान सकूँ इस बेचारे शरीर को क्या खबर, इसके तो गुण ही हैं सड़ना और गलना. वो ही तो इस में होता रहे हर पल मैं चैतन्य कुछ भी न करते, सिर्फ जानूं
मैं ज्ञान स्वरूप अनंत निज निधियों से हूं भरपूर इस शरीर में ही रह, इस संसार में ही जी, सिर्फ ही सबको जानूं. दुनिया समझे मैं रहता इस संसार में पर मैं तो निज स्वभाव में, निज गुणों संग ही हूं
इसीलिये यह जानना, मानना, अनुभव में भी लाना कि एक द्रव्य अन्य द्रव्य का कुछ भी नहीं कर सकता संसार का ऐसा महान रत्न, कि भूला हुआ मैं सदियों से फिर स्वयं को निज निधियों संग जान सकू, देख सकू
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