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सभी शुभ अथवा अशुभ इन्द्रिय के विषयो में जिस साधक का मन विमुख हो गया उसी का मन शीघ्र ही आत्मा में लीन हो जाता है । । ३९ ।।
रागद्वेषादिदोषास्तु मनोधर्मा उदाहृताः ।
विनाशो कीर्तितस्तेषां मनोनाशे तु निश्चितः ।। ४० ।।
योगकल्पलता
रागद्वेष वगैरह दोष मन का धर्म कहे गये हैं जिनका मन के नाश से निश्चित ही क्षय होता है ।। ४०॥
सर्वभावेषु विज्ञाय ममत्वं बन्धकारणम्।
निर्ममो जायते योगी विकल्परहितो ध्रुवम् ॥४१॥
चारो तरफ से विचार कर देखा गया है कि संसार में ममत्व (यह मेरा है / मैं शरीर हूँ) की भावना ही बन्ध का कारण है तथा ममत्व को छोडने से योगी विकल्प से रहित हो जाता है।।४१।।
आत्मा ज्ञानस्वरूपोऽयं निश्चयाद्बन्धवर्जितः ।
निरपेक्षः सदा साक्षी निर्विकारः स्वभावतः ।।४२।।
बन्ध-मोक्ष से परे यह आत्मा सदा निरपेक्ष भाववाला (कर्म का ) साक्षी है जो स्वभाव से ही निर्विकार है ॥४२॥
स्मरणं लोकभावानां क्रमेणाभ्यासयोगतः ।
योगिनो ह्यात्मनिष्ठस्य क्षीयते शुन्यचेतसः । । ४३॥
जिनका चित्त शून्य हो गया है ऐसे गहरे ध्यानवाले आत्मनिष्ठ योगियों का योगाभ्यास से क्रमेण (धीरे-धीरे ) संसार लोक के भाव के स्मरण को क्षीण होता देखता है।।४३।।
हर्षशोकविहीनो यः सर्वत्र समतां गतः ।
चिन्मात्रसमाधौ तु लक्ष्यते ध्येयसन्निभः ।। ४४ ।।
जो ध्यानी हर्ष और शोक दोनों को समान समझकर हर जगह समान भाव रखता है, वह आत्मज्ञान रूप समाधि में अपने ध्येय समान दिखा है ।। ४४ ।।