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आत्मतत्त्वसमीक्षणम्
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आत्मन्येव सदा लीनो देहेऽपि विगतस्पृहः।
राजते योगिराजस्तु निर्विकल्पो निरञ्जनः।।३४।। जो योगीराज सतत आत्मचिन्तन में ही लीन रहता हैं, जिसे अपने शरीर का भी मोह नहीं रहता, वही निर्मोही-निर्लिप्त शोभता है।।३४।।
सर्वचिन्तापरित्यागाद्भवेदतमुखं मनः।
विषयेषु न च प्रीतिस्तदा तत्त्वं प्रकाशते।।३५॥ सभी विचारों को छोडने से मन अन्तर्मुख होता है तथा सांसारिक विषयों से अलिप्त होने से आत्मतत्त्व प्रकाशित होता हैं, अर्थात् आत्मसाक्षात्कार होता है।।३५।।
साधत्वे हि मनःस्वास्थ्यं विद्यते परमार्थतः।
तेन समत्वभावेन वर्तते स हि साधकः।।३६।। सत्य (आत्मा) की उपलब्धि होने पर ही वास्तविक मनःस्वास्थ्य होता है। तब आत्मोपलब्धि होने पर वह साधक समभाव में रहता है।।३६।।
देहस्थयोगिनः सर्वे द्रव्यतो योगिनो मताः।
देहातीता हि ये ते तु भावतो योगिनो ध्रुवम्।।३७।। देहधारी (आत्मा और शरीर को अभेद माननेवाले) द्रव्य से योगी होते हैं जब कि आत्मतत्त्व को शरीर से पृथक् अनुभव करने वाले निश्चय ही भाव से योगी होते हैं।।३७।।
चिन्ताचेष्टापरित्यागादनायासेन जायते।
स्वस्वरूपे लयस्तस्माच्छुभाशुभमलक्षयः।।३८।। शारीरिक चेष्टा और सांसारिक चिन्ता के परित्याग मात्र से अनायास ही मन आत्मतत्त्व में मिल जाता है। उसके बाद समस्त शुभ और अशुभ कर्मों का क्षय होता है।।३८।।
वैरस्यं यस्य संसारे हृषीकार्थे शुभाशुभे। तस्यैव जायते चित्तं लीनं स्वात्मनि सत्वरम्।।३९।।